Daagh Dehlvi Poetry

All time most famous ghazals of daagh dehlvi,


All time most famous ghazals of daagh dehlvi,

1- Tumhare khat mein naya ek salaam kis ka tha
Na tha raqeeb to aakhir wo naam kis ka tha

Wo qatl kar ke mujhe har kisi se puchte hain
Ye kaam kis ne kiya hai ye kaam kis ka tha

Wafa karenge nibahenge baat maanenge
Tumhe bhi yaad hai kuch ye kalaam kis ka tha

Raha na dil mein wo bedard aur dard raha
Muqeem kaun hua hai maqam kis ka tha

Na poochh-ghachh thi kisi ki wahan na aav-bhagat
Tumhari bazm mein kal ehtimaam kis ka tha

Tamaam bazm jise sun ke reh gayi mushtaq
Kaho wo tazkira-e-na-tamaam kis ka tha

Hamare khat ke to purze kiye padha bhi nahi
Suna jo tune ba-dil wo payaam kis ka tha

Uthayi kyun na qayamat adoo ke kuche mein
Lihaaz aap ko waqt-e-khiraam kis ka tha

Guzar gaya wo zamana kahun to kis se kahun
Khayaal dil ko mere subh o shaam kis ka tha

Humein to hazrat-e-wa'iz ki zid ne pilwayi
Yahan iraada-e-sharb-e-mudaam kis ka tha

Agarche dekhne wale tire hazaron the
Tabah-haal bohot zer-e-baam kis ka tha

Wo kaun tha ke tumhe jis ne bewafa jaana
Khayaal-e-khaam ye sauda-e-khaam kis ka tha

Inhi sifaat se hota hai aadmi mashhoor
Jo lutf-e-aam wo karte ye naam kis ka tha

Har ek se kehte hain kya 'Daagh' bewafa nikla
Ye poochhe un se koi wo ghulaam kis ka tha


2- Aap ka aitbaar kaun kare
Roz ka intezaar kaun kare

Zikr-e-mehr-o-wafa to hum karte
Par tumhe sharmasaar kaun kare

Ho jo us chashm-e-mast se be-khud
Phir use hoshiyar kaun kare

Tum to ho jaan ek zamane ki
Jaan tum par nisaar kaun kare

Aafat-e-rozgaar jab tum ho
Shikwa-e-rozgaar kaun kare

Apni tasbeeh rehne de zahid
Daana daana shumaar kaun kare

Hijr mein zeher kha ke mar jaun
Maut ka intezaar kaun kare

Aankh hai turk zulfon hai sayyaad
Dekhein dil ka shikaar kaun kare

Wa'da karte nahi ye kehte hain
Tujh ko umeed-waar kaun kare

'Daagh' ki shakl dekh kar bole
Aisi surat ko pyaar kaun kare


3- Uzr aane mein bhi hai aur bulaate bhi nahi
Bais-e-tark-e-mulaqat bataate bhi nahi

Muntazir hain dam-e-ruqhsat ki ye mar jaye to jaayein
Phir ye ehsaan ki hum chhod ke jaate bhi nahi

Sar uthao to sahi aankh milaao to sahi
Nasha-e-may bhi nahi neend ke maate bhi nahi

Kya kaha phir to kaho hum nahi sunte teri
Nahi sunte to hum aison ko sunaate bhi nahi

Khoob parda hai ke chilman se lage baithe hain
Saaf chhupte bhi nahi saamne aate bhi nahi

Mujh se laagar teri aankhon mein khatakte to rahe
Tujh se naazuk meri nazron mein samaate bhi nahi

Dekhte hi mujhe mehfil mein ye irshaad hua
Kaun baitha hai use log uthaate bhi nahi

Ho chuka qat' ta'alluq to jafaaein kyun hon
Jin ko matlab nahi rehta wo sataate bhi nahi

Zist se tang ho ai 'Daagh' to jeete kyun ho
Jaan pyaari bhi nahi jaan se jaate bhi nahi


4- Ghazab kiya tire wa'de pe aitbaar kiya
Tamaam raat qayamat ka intezaar kiya

Kisi tarah jo na us but ne aitbaar kiya
Meri wafa ne mujhe khoob sharmasaar kiya

Hansa hansa ke shab-e-wasl ashk-baar kiya
Tasalliyan mujhe de de ke be-qaraar kiya

Ye kis ne jalwa hamare sar-e-mazaar kiya
Ke dil se shor utha haaye be-qaraar kiya

Suna hai teg ko qaatil ne aab-daar kiya
Agar ye sach hai to be-shubah hum pe waar kiya

Na aaye raah pe wo izzat be-shumaar kiya
Shab-e-wisaal bhi main ne to intezaar kiya

Tujhe to wa'da-e-deedaar hum se karna tha
Ye kya kiya ki jahan ko umeed-waar kiya


5- Ajab apna haal hota jo wisaal-e-yaar hota
Kabhi jaan sadqe hoti kabhi dil nisaar hota

Koi fitna taa-qayamat na phir ashkaar hota
Tire dil pe kaash zaalim mujhe ikhtiyaar hota

Jo tumhari tarah tum se koi jhoote wa'de karta
Tumhi munsifi se keh do tumhe aitbaar hota

Gam-e-ishq mein maza tha jo use samajh ke khaate
Ye wo zeher hai ke aakhir may-e-khush-gawaar hota

Ye maza tha dil-lagi ka ke barabar aag lagti
Na tujhe qaraar hota na mujhe qaraar hota
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1- तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था

न पूछ-गछ थी किसी की वहाँ न आव-भगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतिमाम किस का था

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो वो तज़्किरा-ए-ना-तमाम किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तू ने ब-दिल वो पयाम किस का था

उठाई क्यूँ न क़यामत अदू के कूचे में
लिहाज़ आप को वक़्त-ए-ख़िराम किस का था

गुज़र गया वो ज़माना कहूँ तो किस से कहूँ
ख़याल दिल को मिरे सुब्ह ओ शाम किस का था

हमें तो हज़रत-ए-वाइज़ की ज़िद ने पिलवाई
यहाँ इरादा-ए-शर्ब-ए-मुदाम किस का था

अगरचे देखने वाले तिरे हज़ारों थे
तबाह-हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किस का था

वो कौन था कि तुम्हें जिस ने बेवफ़ा जाना
ख़याल-ए-ख़ाम ये सौदा-ए-ख़ाम किस का था

इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आम वो करते ये नाम किस का था

हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
ये पूछे उन से कोई वो ग़ुलाम किस का था


2- आप का ए'तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे

ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते
पर तुम्हें शर्मसार कौन करे

हो जो उस चश्म-ए-मस्त से बे-ख़ुद
फिर उसे होशियार कौन करे

तुम तो हो जान इक ज़माने की
जान तुम पर निसार कौन करे

आफ़त-ए-रोज़गार जब तुम हो
शिकवा-ए-रोज़गार कौन करे

अपनी तस्बीह रहने दे ज़ाहिद
दाना दाना शुमार कौन करे

हिज्र में ज़हर खा के मर जाऊँ
मौत का इंतिज़ार कौन करे

आँख है तुर्क ज़ुल्फ़ है सय्याद
देखें दिल का शिकार कौन करे

वा'दा करते नहीं ये कहते हैं
तुझ को उम्मीद-वार कौन करे

'दाग़' की शक्ल देख कर बोले
ऐसी सूरत को प्यार कौन करे


3- उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं

मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़्सत कि ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं

सर उठाओ तो सही आँख मिलाओ तो सही
नश्शा-ए-मय भी नहीं नींद के माते भी नहीं

क्या कहा फिर तो कहो हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

मुझ से लाग़र तिरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझ से नाज़ुक मिरी नज़रों में समाते भी नहीं

देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है उसे लोग उठाते भी नहीं

हो चुका क़त्अ तअ'ल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिन को मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं


4- ग़ज़ब किया तिरे वा'दे पे ए'तिबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ए'तिबार किया
मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया

हँसा हँसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लियाँ मुझे दे दे के बे-क़रार किया

ये किस ने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा हाए बे-क़रार किया

सुना है तेग़ को क़ातिल ने आब-दार किया
अगर ये सच है तो बे-शुब्ह हम पे वार किया

न आए राह पे वो इज्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैं ने तो इंतिज़ार किया

तुझे तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उमीद-वार किया

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआल-अंदेश
उन्हों ने वा'दा किया इस ने ए'तिबार किया

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन गई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आश्कार किया

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादाँ कि ग़ैर कहते हैं
अख़ीर कुछ न बनी सब्र इख़्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उस की बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

भुला भुला के जताया है उन को राज़-ए-निहाँ
छुपा छुपा के मोहब्बत को आश्कार किया

न उस के दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक परेशाँ मिरा ग़ुबार किया

हम ऐसे महव-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होश्यार किया

हमारे सीने में जो रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उस को न हम-कनार किया

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुम ने ए'तिबार किया

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

तिरी निगह के तसव्वुर में हम ने ऐ क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

ग़ज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैं ने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

हुआ है कोई मगर उस का चाहने वाला
कि आसमाँ ने तिरा शेवा इख़्तियार किया

न पूछ दिल की हक़ीक़त मगर ये कहते हैं
वो बे-क़रार रहे जिस ने बे-क़रार किया

जब उन को तर्ज़-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होश्यार किया

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को इक कहानी थी
कुछ ए'तिबार किया कुछ न ए'तिबार किया

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मिरे कहने का ए'तिबार किया

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बद-गुमानी थी
कि डरते डरते ख़ुदा पर भी आश्कार किया

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
अख़ीर अब तुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

वो बात कर जो कभी आसमाँ से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तू ने इफ़्तिख़ार किया

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी एक ख़ाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आश्कार किया


5- अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

कोई फ़ित्ना ता-क़यामत न फिर आश्कार होता
तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता

जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें ए'तिबार होता

ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुश-गवार होता

ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

तिरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ए'तिबार होता

ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता

गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देते जो न बादा-ख़्वार होता

मुझे मानते सब ऐसा कि अदू भी सज्दे करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता

तुम्हें नाज़ हो न क्यूँकर कि लिया है 'दाग़' का दिल
ये रक़म न हाथ लगती न ये इफ़्तिख़ार होता


Poet - Daagh Dehlvi
Location: Old Delhi, India
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