Allama Iqbal Poetry

shikwa Kyun ziyaan kar banun sud faramosh rahun Allama Iqbal


shikwa Kyun ziyaan kar banun sud faramosh rahun Allama Iqbal

क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ 
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ 
नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ 
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ 
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को 
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को 
है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम 
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम 
साज़ ख़ामोश हैं फ़रियाद से मामूर हैं हम 
नाला आता है अगर लब पे तो मा'ज़ूर हैं हम 
ऐ ख़ुदा शिकवा-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा भी सुन ले 
ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले 
थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम 
फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम 
शर्त इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम 
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम 
हम को जमईयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी 
वर्ना उम्मत तिरे महबूब की दीवानी थी 
हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र 
कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं मा'बूद शजर 
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र 
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर 
तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा 
क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा 
बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी 
अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी 
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी 
इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी 
पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने 
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने 
थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में 
ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में 
दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में 
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में 
शान आँखों में न जचती थी जहाँ-दारों की 
कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की 
हम जो जीते थे तो जंगों की मुसीबत के लिए 
और मरते थे तिरे नाम की अज़्मत के लिए 
थी न कुछ तेग़ज़नी अपनी हुकूमत के लिए 
सर-ब-कफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए 
क़ौम अपनी जो ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर मरती 
बुत-फ़रोशीं के एवज़ बुत-शिकनी क्यूँ करती 
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे 
पाँव शेरों के भी मैदाँ से उखड़ जाते थे 
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे 
तेग़ क्या चीज़ है हम तोप से लड़ जाते थे 
नक़्श-ए-तौहीद का हर दिल पे बिठाया हम ने 
ज़ेर-ए-ख़ंजर भी ये पैग़ाम सुनाया हम ने 
तू ही कह दे कि उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किस ने 
शहर क़ैसर का जो था उस को किया सर किस ने 
तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने 
काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने 
किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को 
किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को 
कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई 
और तेरे लिए ज़हमत-कश-ए-पैकार हुई 
किस की शमशीर जहाँगीर जहाँ-दार हुई 
किस की तकबीर से दुनिया तिरी बेदार हुई 
किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे 
मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे 
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़ 
क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़ 
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़ 
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा-नवाज़ 
बंदा ओ साहब ओ मोहताज ओ ग़नी एक हुए 
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए 
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ में सहर ओ शाम फिरे 
मय-ए-तौहीद को ले कर सिफ़त-ए-जाम फिरे 
कोह में दश्त में ले कर तिरा पैग़ाम फिरे 
और मालूम है तुझ को कभी नाकाम फिरे 
दश्त तो दश्त हैं दरिया भी न छोड़े हम ने 
बहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिए घोड़े हम ने 
सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया हम ने 
नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया हम ने 
तेरे का'बे को जबीनों से बसाया हम ने 
तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हम ने 
फिर भी हम से ये गिला है कि वफ़ादार नहीं 
हम वफ़ादार नहीं तू भी तो दिलदार नहीं 
उम्मतें और भी हैं उन में गुनहगार भी हैं 
इज्ज़ वाले भी हैं मस्त-ए-मय-ए-पिंदार भी हैं 
उन में काहिल भी हैं ग़ाफ़िल भी हैं हुश्यार भी हैं 
सैकड़ों हैं कि तिरे नाम से बे-ज़ार भी हैं 
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर 
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर 
बुत सनम-ख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए 
है ख़ुशी उन को कि का'बे के निगहबान गए 
मंज़िल-ए-दहर से ऊँटों के हुदी-ख़्वान गए 
अपनी बग़लों में दबाए हुए क़ुरआन गए 
ख़ंदा-ज़न कुफ़्र है एहसास तुझे है कि नहीं 
अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं 
ये शिकायत नहीं हैं उन के ख़ज़ाने मामूर 
नहीं महफ़िल में जिन्हें बात भी करने का शुऊ'र 
क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर 
और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर 
अब वो अल्ताफ़ नहीं हम पे इनायात नहीं 
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं 
क्यूँ मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब 
तेरी क़ुदरत तो है वो जिस की न हद है न हिसाब 
तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हबाब 
रह-रव-ए-दश्त हो सैली-ज़दा-ए-मौज-ए-सराब 
तान-ए-अग़्यार है रुस्वाई है नादारी है 
क्या तिरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है 
बनी अग़्यार की अब चाहने वाली दुनिया 
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया 
हम तो रुख़्सत हुए औरों ने सँभाली दुनिया 
फिर न कहना हुई तौहीद से ख़ाली दुनिया 
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तिरा नाम रहे 
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे जाम रहे 
तेरी महफ़िल भी गई चाहने वाले भी गए 
शब की आहें भी गईं सुब्ह के नाले भी गए 
दिल तुझे दे भी गए अपना सिला ले भी गए 
आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए 
आए उश्शाक़ गए वादा-ए-फ़र्दा ले कर 
अब उन्हें ढूँड चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा ले कर 
दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही 
नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही 
इश्क़ का दिल भी वही हुस्न का जादू भी वही 
उम्मत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल भी वही तू भी वही 
फिर ये आज़ुर्दगी-ए-ग़ैर सबब क्या मा'नी 
अपने शैदाओं पे ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मा'नी 
तुझ को छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा 
बुत-गरी पेशा किया बुत-शिकनी को छोड़ा 
इश्क़ को इश्क़ की आशुफ़्ता-सरी को छोड़ा 
रस्म-ए-सलमान ओ उवैस-ए-क़रनी को छोड़ा 
आग तकबीर की सीनों में दबी रखते हैं 
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबशी रखते हैं 
इश्क़ की ख़ैर वो पहली सी अदा भी न सही 
जादा-पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी न सही 
मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-क़िबला-नुमा भी न सही 
और पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा भी न सही 
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है 
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है 
सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तू ने 
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तू ने 
आतिश-अंदोज़ किया इश्क़ का हासिल तू ने 
फूँक दी गर्मी-ए-रुख़्सार से महफ़िल तू ने 
आज क्यूँ सीने हमारे शरर-आबाद नहीं 
हम वही सोख़्ता-सामाँ हैं तुझे याद नहीं 
वादी-ए-नज्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा 
क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा 
हौसले वो न रहे हम न रहे दिल न रहा 
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक़-ए-महफ़िल न रहा 
ऐ ख़ुशा आँ रोज़ कि आई ओ ब-सद नाज़ आई 
बे-हिजाबाना सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई 
बादा-कश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे 
सुनते हैं जाम-ब-कफ़ नग़्मा-ए-कू-कू बैठे 
दौर हंगामा-ए-गुलज़ार से यकसू बैठे 
तेरे दीवाने भी हैं मुंतज़िर-ए-हू बैठे 
अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे 
बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे 
क़ौम-ए-आवारा इनाँ-ताब है फिर सू-ए-हिजाज़ 
ले उड़ा बुलबुल-ए-बे-पर को मज़ाक़-ए-परवाज़ 
मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़ 
तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़ 
नग़्मे बेताब हैं तारों से निकलने के लिए 
तूर मुज़्तर है उसी आग में जलने के लिए 
मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम की आसाँ कर दे 
मोर-ए-बे-माया को हम-दोश-ए-सुलेमाँ कर दे 
जिंस-ए-नायाब-ए-मोहब्बत को फिर अर्ज़ां कर दे 
हिन्द के दैर-नशीनों को मुसलमाँ कर दे 
जू-ए-ख़ूँ मी चकद अज़ हसरत-ए-दैरीना-ए-मा 
मी तपद नाला ब-निश्तर कद-ए-सीना-ए-मा 
बू-ए-गुल ले गई बैरून-ए-चमन राज़-ए-चमन 
क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़-ए-चमन 
अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन 
उड़ गए डालियों से ज़मज़मा-पर्दाज़-ए-चमन 
एक बुलबुल है कि महव-ए-तरन्नुम अब तक 
उस के सीने में है नग़्मों का तलातुम अब तक 
क़ुमरियाँ शाख़-ए-सनोबर से गुरेज़ाँ भी हुईं 
पत्तियाँ फूल की झड़ झड़ के परेशाँ भी हुईं 
वो पुरानी रौशें बाग़ की वीराँ भी हुईं 
डालियाँ पैरहन-ए-बर्ग से उर्यां भी हुईं 
क़ैद-ए-मौसम से तबीअत रही आज़ाद उस की 
काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उस की 
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में 
कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में 
कितने बेताब हैं जौहर मिरे आईने में 
किस क़दर जल्वे तड़पते हैं मिरे सीने में 
इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं 
दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं 
चाक इस बुलबुल-ए-तन्हा की नवा से दिल हों 
जागने वाले इसी बाँग-ए-दरा से दिल हों 
या'नी फिर ज़िंदा नए अहद-ए-वफ़ा से दिल हों 
फिर इसी बादा-ए-दैरीना के प्यासे दिल हों 
अजमी ख़ुम है तो क्या मय तो हिजाज़ी है मिरी 
नग़्मा हिन्दी है तो क्या लय तो हिजाज़ी है मिरी 

-----------------------------------------------------------------

kyuun ziyan-kar banun sud-faramosh rahun
fikr-e-farda na karun mahv-e-gham-e-dosh rahun 
naale bulbul ke sunun aur hama-tan gosh rahun 
ham-nava main bhi koi gul huun ki khamosh rahun 
jur.at-amoz miri tab-e-sukhan hai mujh ko 
shikva allah se khakam-ba-dahan hai mujh ko 
hai baja sheva-e-taslim men mash.hur hain ham 
qissa-e-dard sunate hain ki majbur hain ham 
saaz khamosh hain fariyad se mamur hain ham 
naala aata hai agar lab pe to ma.azur hain ham 
ai khuda shikva-e-arbab-e-vafa bhi sun le 
khugar-e-hamd se thoDa sa gila bhi sun le 
thi to maujud azal se hi tiri zat-e-qadim 
phuul tha zeb-e-chaman par na pareshan thi shamim 
shart insaf hai ai sahib-e-altaf-e-amim 
bu-e-gul phailti kis tarah jo hoti na nasim 
ham ko jam.iyat-e-khatir ye pareshani thi 
varna ummat tire mahbub ki divani thi 
ham se pahle tha ajab tere jahan ka manzar 
kahin masjud the patthar kahin ma.abud shajar 
khugar-e-paikar-e-mahsus thi insan ki nazar 
manta phir koi an-dekhe khuda ko kyunkar 
tujh ko ma.alum hai leta tha koi naam tira 
quvvat-e-bazu-e-muslim ne kiya kaam tira 
bas rahe the yahin saljuq bhi turani bhi 
ahl-e-chin chiin men iran men sasani bhi 
isi mamure men abad the yunani bhi 
isi duniya men yahudi bhi the nasrani bhi 
par tire naam pe talvar uTha.i kis ne 
baat jo bigDi hui thi vo bana.i kis ne 
the hamin ek tire marka-araon men 
khushkiyon men kabhi laDte kabhi dariyaon men 
diin azanen kabhi europe ke kalisaon men 
kabhi africa ke tapte hue sahraon men 
shaan ankhon men na jachti thi jahan-daron ki 
kalma paDhte the hamin chhanv men talvaron ki 
ham jo jiite the to jangon ki musibat ke liye 
aur marte the tire naam ki azmat ke liye 
thi na kuchh teghzani apni hukumat ke liye 
sar-ba-kaf phirte the kya dahr men daulat ke liye 
qaum apni jo zar-o-mal-e-jahan par marti 
but-faroshi ke evaz but-shikani kyuun karti 
Tal na sakte the agar jang men aD jaate the 
paanv sheron ke bhi maidan se ukhaD jaate the 
tujh se sarkash hua koi to bigaD jaate the 
tegh kya chiiz hai ham top se laD jaate the 
naqsh-e-tauhid ka har dil pe biThaya ham ne 
zer-e-khanjar bhi ye paigham sunaya ham ne 
tu hi kah de ki ukhaDa dar-e-khaibar kis ne 
shahr qaisar ka jo tha us ko kiya sar kis ne 
toDe makhluq khuda-vandon ke paikar kis ne 
kaaT kar rakh diye kuffar ke lashkar kis ne 
kis ne ThanDa kiya atish-kada-e-iran ko 
kis ne phir zinda kiya tazkira-e-yazdan ko 
kaun si qaum faqat teri talabgar hui 
aur tere liye zahmat-kash-e-paikar hui 
kis ki shamshir jahangir jahan-dar hui 
kis ki takbir se duniya tiri bedar hui 
kis ki haibat se sanam sahme hue rahte the 
munh ke bal gir ke hu-allahu-ahad kahte the 
aa gaya ain laDa.i men agar vaqt-e-namaz 
qibla-ru ho ke zamin-bos hui qaum-e-hijaz 
ek hi saf men khaDe ho ga.e mahmud o ayaaz 
na koi banda raha aur na koi banda-navaz
banda o sahab o mohtaj o ghani ek hue 
teri sarkar men pahunche to sabhi ek hue 
mahfil-e-kaun-o-makan men sahar o shaam phire 
mai-e-tauhid ko le kar sifat-e-jam phire 
koh men dasht men le kar tira paigham phire 
aur ma.alum hai tujh ko kabhi nakam phire 
dasht to dasht hain dariya bhi na chhoDe ham ne 
bahr-e-zulmat men dauDa diye ghoDe ham ne 
safha-e-dahr se batil ko miTaya ham ne 
nau-e-insan ko ghulami se chhuDaya ham ne 
tere ka.abe ko jabinon se basaya ham ne 
tere qur.an ko sinon se lagaya ham ne 
phir bhi ham se ye gila hai ki vafadar nahin 
ham vafadar nahin tu bhi to dildar nahin 
ummaten aur bhi hain un men gunahgar bhi hain 
ijz vaale bhi hain mast-e-mai-e-pindar bhi hain 
un men kahil bhi hain ghafil bhi hain hushyar bhi hain 
saikDon hain ki tire naam se be-zar bhi hain 
rahmaten hain tiri aghyar ke kashanon par 
barq girti hai to bechare musalmanon par 
but sanam-khanon men kahte hain musalman ga.e 
hai khushi un ko ki ka.abe ke nigahban ga.e 
manzil-e-dahr se unTon ke hudi-khvan ga.e 
apni baghlon men daba.e hue qur.an ga.e 
khanda-zan kufr hai ehsas tujhe hai ki nahin 
apni tauhid ka kuchh paas tujhe hai ki nahin 
ye shikayat nahin hain un ke khazane mamur 
nahin mahfil men jinhen baat bhi karne ka shu.ur 
qahr to ye hai ki kafir ko milen huur o qusur 
aur bechare musalman ko faqat vada-e-hur 
ab vo altaf nahin ham pe inayat nahin 
baat ye kya hai ki pahli si mudarat nahin 
kyuun musalmanon men hai daulat-e-duniya nayab 
teri qudrat to hai vo jis ki na had hai na hisab 
tu jo chahe to uThe sina-e-sahra se habab 
rah-rav-e-dasht ho saili-zada-e-mauj-e-sarab 
tan-e-aghyar hai rusva.i hai nadari hai 
kya tire naam pe marne ka evaz khvari hai 
bani aghyar ki ab chahne vaali duniya 
rah ga.i apne liye ek khayali duniya 
ham to rukhsat hue auron ne sanbhali duniya 
phir na kahna hui tauhid se khali duniya 
ham to jiite hain ki duniya men tira naam rahe 
kahin mumkin hai ki saaqi na rahe jaam rahe 
teri mahfil bhi ga.i chahne vaale bhi ga.e 
shab ki aahen bhi ga.iin sub.h ke naale bhi ga.e 
dil tujhe de bhi ga.e apna sila le bhi ga.e 
aa ke baiThe bhi na the aur nikale bhi ga.e 
aa.e ushshaq ga.e vada-e-farda le kar 
ab unhen DhunD charagh-e-rukh-e-zeba le kar 
dard-e-laila bhi vahi qais ka pahlu bhi vahi 
najd ke dasht o jabal men ram-e-ahu bhi vahi 
ishq ka dil bhi vahi husn ka jaadu bhi vahi 
ummat-e-ahmad-e-mursil bhi vahi tu bhi vahi 
phir ye azurdagi-e-ghair sabab kya ma.ani 
apne shaidaon pe ye chashm-e-ghazab kya ma.ani 
tujh ko chhoDa ki rasul-e-arabi ko chhoDa 
but-gari pesha kiya but-shikani ko chhoDa 
ishq ko ishq ki ashufta-sari ko chhoDa 
rasm-e-salman o uvais-e-qarani ko chhoDa 
aag takbir ki sinon men dabi rakhte hain 
zindagi misl-e-bilal-e-habashi rakhte hain 
ishq ki khair vo pahli si ada bhi na sahi 
jada-paimali-e-taslim-o-raza bhi na sahi 
muztarib dil sifat-e-qibla-numa bhi na sahi 
aur pabandi-e-a.in-e-vafa bhi na sahi 
kabhi ham se kabhi ghairon se shanasa.i hai 
baat kahne ki nahin tu bhi to harja.i hai 
sar-e-faran pe kiya diin ko kamil tu ne 
ik ishare men hazaron ke liye dil tu ne 
atish-andoz kiya ishq ka hasil tu ne 
phunk di garmi-e-rukhsar se mahfil tu ne 
aaj kyuun siine hamare sharer-abad nahin 
ham vahi sokhta-saman hain tujhe yaad nahin 
vadi-e-najd men vo shor-e-salasil na raha 
qais divana-e-nazzara-e-mahmil na raha 
hausle vo na rahe ham na rahe dil na raha 
ghar ye ujDa hai ki tu raunaq-e-mahfil na raha 
ai khusha aan roz ki aa.i o ba-sad naaz aa.i 
be-hijabana su-e-mahfil-e-ma baaz aa.i 
bada-kash ghair hain gulshan men lab-e-ju baiThe 
sunte hain jam-ba-kaf naghma-e-ku-ku baiThe 
daur hangama-e-gulzar se yaksu baiThe 
tere divane bhi hain muntazir-e-hu baiThe 
apne parvanon ko phir zauq-e-khud-afrozi de 
barq-e-derina ko farman-e-jigar-sozi de 
qaum-e-avara inan-tab hai phir su-e-hijaz 
le uDa bulbul-e-be-par ko mazaq-e-parvaz 
muztarib-e-bagh ke har ghunche men hai bu-e-niyaz 
tu zara chheD to de tishna-e-mizrab hai saaz 
naghme betab hain taron se nikalne ke liye 
tuur muztar hai usi aag men jalne ke liye 
mushkilen ummat-e-marhum ki asan kar de 
mor-e-be-maya ko ham-dosh-e-sulaiman kar de 
jins-e-nayab-e-mohabbat ko phir arzan kar de 
hind ke dair-nashinon ko musalman kar de
ju-e-khun mi chakad az hasrat-e-dairina-e-ma 
mi tapad naala ba-nishtar kada-e-sina-e-ma 
bu-e-gul le ga.i bairun-e-chaman raz-e-chaman 
kya qayamat hai ki khud phuul hain ghammaz-e-chaman 
ahd-e-gul khatm hua TuuT gaya saz-e-chaman 
uD ga.e Daliyon se zamzama-pardaz-e-chaman 
ek bulbul hai ki mahv-e-tarannum ab tak 
us ke siine men hai naghmon ka talatum ab tak 
qumriyan shakh-e-sanobar se gurezan bhi huiin 
pattiyan phuul ki jhaD jhaD ke pareshan bhi huiin 
vo purani raushen baagh ki viran bhi huiin 
Daliyan pairahan-e-barg se uryan bhi huiin 
qaid-e-mausam se tabi.at rahi azad us ki 
kaash gulshan men samajhta koi fariyad us ki 
lutf marne men hai baaqi na maza jiine men 
kuchh maza hai to yahi khun-e-jigar piine men 
kitne betab hain jauhar mire a.ine men 
kis qadar jalve taDapte hain mire siine men 
is gulistan men magar dekhne vaale hi nahin 
daagh jo siine men rakhte hon vo laale hi nahin 
chaak is bulbul-e-tanha ki nava se dil hon 
jagne vaale isi bang-e-dara se dil hon 
ya.ani phir zinda na.e ahd-e-vafa se dil hon 
phir isi bada-e-dairina ke pyase dil hon 
ajami khum hai to kya mai to hijazi hai miri 
naghma hindi hai to kya lai to hijazi hai miri

Poet - Allama Iqbal
Location: Sialkot, Punjab, British India (now in Pakistan)
Views: 425