1. jawab-e-shikwa dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai allama Iqbal..

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है
क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है 
ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है 
इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा 
आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा 
पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई 
बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई 
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई 
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई 
कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा 
मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा 
थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या 
अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या 
ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या 
आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या 
ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं 
शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं 
इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है 
था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है 
आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है 
हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है 
नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को 
बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को 
आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा 
अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा 
आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा 
किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा 
शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू ने 
हम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने 
हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं 
राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं 
तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं 
जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं 
कोई क़ाबिल हो तो हम शान-ए-कई देते हैं 
ढूँडने वालों को दुनिया भी नई देते हैं 
हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं 
उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं 
बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं 
था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं 
बादा-आशाम नए बादा नया ख़ुम भी नए 
हरम-ए-काबा नया बुत भी नए तुम भी नए 
वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था 
नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था 
जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था 
कभी महबूब तुम्हारा यही हरजाई था 
किसी यकजाई से अब अहद-ए-ग़ुलामी कर लो 
मिल्लत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल को मक़ामी कर लो 
किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है 
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है 
तब-ए-आज़ाद पे क़ैद-ए-रमज़ाँ भारी है 
तुम्हीं कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है 
क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं 
जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं 
जिन को आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो 
नहीं जिस क़ौम को परवा-ए-नशेमन तुम हो 
बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो 
बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो 
हो निको नाम जो क़ब्रों की तिजारत कर के 
क्या न बेचोगे जो मिल जाएँ सनम पत्थर के 
सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया किस ने 
नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया किस ने 
मेरे काबे को जबीनों से बसाया किस ने 
मेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया किस ने 
थे तो आबा वो तुम्हारे ही मगर तुम क्या हो 
हाथ पर हाथ धरे मुंतज़िर-ए-फ़र्दा हो 
क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर 
शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर 
अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर 
मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर 
तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं 
जल्वा-ए-तूर तो मौजूद है मूसा ही नहीं 
मंफ़अत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक 
एक ही सब का नबी दीन भी ईमान भी एक 
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक 
कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक 
फ़िरक़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं 
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं 
कौन है तारिक-ए-आईन-ए-रसूल-ए-मुख़्तार 
मस्लहत वक़्त की है किस के अमल का मेआर 
किस की आँखों में समाया है शिआर-ए-अग़्यार 
हो गई किस की निगह तर्ज़-ए-सलफ़ से बे-ज़ार 
क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं 
कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं 
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब 
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब 
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब 
पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब 
उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से 
ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से 
वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही 
बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही 
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही 
फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही 
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे 
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे 
शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद 
हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद 
वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद 
ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद 
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो 
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो 
दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाक 
अदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक 
शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक 
था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक 
ख़ुद-गुदाज़ी नम-ए-कैफ़ियत-ए-सहबा-यश बूद 
ख़ाली-अज़-ख़ेश शुदन सूरत-ए-मीना-यश बूद 
हर मुसलमाँ रग-ए-बातिल के लिए नश्तर था 
उस के आईना-ए-हस्ती में अमल जौहर था 
जो भरोसा था उसे क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर था 
है तुम्हें मौत का डर उस को ख़ुदा का डर था 
बाप का इल्म न बेटे को अगर अज़बर हो 
फिर पिसर क़ाबिल-ए-मीरास-ए-पिदर क्यूँकर हो 
हर कोई मस्त-ए-मय-ए-ज़ौक़-ए-तन-आसानी है 
तुम मुसलमाँ हो ये अंदाज़-ए-मुसलमानी है 
हैदरी फ़क़्र है ने दौलत-ए-उस्मानी है 
तुम को अस्लाफ़ से क्या निस्बत-ए-रूहानी है 
वो ज़माने में मुअज़्ज़िज़ थे मुसलमाँ हो कर 
और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआँ हो कर 
तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम 
तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम 
चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम 
पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम 
तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी 
यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी 
ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार 
तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार 
तुम हो गुफ़्तार सरापा वो सरापा किरदार 
तुम तरसते हो कली को वो गुलिस्ताँ ब-कनार 
अब तलक याद है क़ौमों को हिकायत उन की 
नक़्श है सफ़्हा-ए-हस्ती पे सदाक़त उन की 
मिस्ल-ए-अंजुम उफ़ुक़-ए-क़ौम पे रौशन भी हुए 
बुत-ए-हिन्दी की मोहब्बत में बिरहमन भी हुए 
शौक़-ए-परवाज़ में महजूर-ए-नशेमन भी हुए 
बे-अमल थे ही जवाँ दीन से बद-ज़न भी हुए 
इन को तहज़ीब ने हर बंद से आज़ाद किया 
ला के काबे से सनम-ख़ाने में आबाद किया 
क़ैस ज़हमत-कश-ए-तन्हाई-ए-सहरा न रहे 
शहर की खाए हवा बादिया-पैमा न रहे 
वो तो दीवाना है बस्ती में रहे या न रहे 
ये ज़रूरी है हिजाब-ए-रुख़-ए-लैला न रहे 
गिला-ए-ज़ौर न हो शिकवा-ए-बेदाद न हो 
इश्क़ आज़ाद है क्यूँ हुस्न भी आज़ाद न हो 
अहद-ए-नौ बर्क़ है आतिश-ज़न-ए-हर-ख़िर्मन है 
ऐमन इस से कोई सहरा न कोई गुलशन है 
इस नई आग का अक़्वाम-ए-कुहन ईंधन है 
मिल्लत-ए-ख़त्म-ए-रसूल शोला-ब-पैराहन है 
आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा 
आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा 
देख कर रंग-ए-चमन हो न परेशाँ माली 
कौकब-ए-ग़ुंचा से शाख़ें हैं चमकने वाली 
ख़स ओ ख़ाशाक से होता है गुलिस्ताँ ख़ाली 
गुल-बर-अंदाज़ है ख़ून-ए-शोहदा की लाली 
रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है 
ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है 
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं 
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं 
सैकड़ों नख़्ल हैं काहीदा भी बालीदा भी हैं 
सैकड़ों बत्न-ए-चमन में अभी पोशीदा भी हैं 
नख़्ल-ए-इस्लाम नमूना है बिरौ-मंदी का 
फल है ये सैकड़ों सदियों की चमन-बंदी का 
पाक है गर्द-ए-वतन से सर-ए-दामाँ तेरा 
तू वो यूसुफ़ है कि हर मिस्र है कनआँ तेरा 
क़ाफ़िला हो न सकेगा कभी वीराँ तेरा 
ग़ैर यक-बाँग-ए-दारा कुछ नहीं सामाँ तेरा 
नख़्ल-ए-शमा अस्ती ओ दर शोला दो-रेशा-ए-तू 
आक़िबत-सोज़ बवद साया-ए-अँदेशा-ए-तू 
तू न मिट जाएगा ईरान के मिट जाने से 
नश्शा-ए-मय को तअल्लुक़ नहीं पैमाने से 
है अयाँ यूरिश-ए-तातार के अफ़्साने से 
पासबाँ मिल गए काबे को सनम-ख़ाने से 
कश्ती-ए-हक़ का ज़माने में सहारा तू है 
अस्र-ए-नौ-रात है धुँदला सा सितारा तू है 
है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का 
ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का 
तू समझता है ये सामाँ है दिल-आज़ारी का 
इम्तिहाँ है तिरे ईसार का ख़ुद्दारी का 
क्यूँ हिरासाँ है सहिल-ए-फ़रस-ए-आदा से 
नूर-ए-हक़ बुझ न सकेगा नफ़स-ए-आदा से 
चश्म-ए-अक़्वाम से मख़्फ़ी है हक़ीक़त तेरी 
है अभी महफ़िल-ए-हस्ती को ज़रूरत तेरी 
ज़िंदा रखती है ज़माने को हरारत तेरी 
कौकब-ए-क़िस्मत-ए-इम्काँ है ख़िलाफ़त तेरी 
वक़्त-ए-फ़ुर्सत है कहाँ काम अभी बाक़ी है 
नूर-ए-तौहीद का इत्माम अभी बाक़ी है 
मिस्ल-ए-बू क़ैद है ग़ुंचे में परेशाँ हो जा 
रख़्त-बर-दोश हवा-ए-चमनिस्ताँ हो जा 
है तुनक-माया तू ज़र्रे से बयाबाँ हो जा 
नग़्मा-ए-मौज है हंगामा-ए-तूफ़ाँ हो जा 
क़ुव्वत-ए-इश्क़ से हर पस्त को बाला कर दे 
दहर में इस्म-ए-मोहम्मद से उजाला कर दे 
हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो 
चमन-ए-दह्र में कलियों का तबस्सुम भी न हो 
ये न साक़ी हो तो फिर मय भी न हो ख़ुम भी न हो 
बज़्म-ए-तौहीद भी दुनिया में न हो तुम भी न हो 
ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का इस्तादा इसी नाम से है 
नब्ज़-ए-हस्ती तपिश-आमादा इसी नाम से है 
दश्त में दामन-ए-कोहसार में मैदान में है 
बहर में मौज की आग़ोश में तूफ़ान में है 
चीन के शहर मराक़श के बयाबान में है 
और पोशीदा मुसलमान के ईमान में है 
चश्म-ए-अक़्वाम ये नज़्ज़ारा अबद तक देखे 
रिफ़अत-ए-शान-ए-रफ़ाना-लका-ज़िक्र देखे 
मर्दुम-ए-चश्म-ए-ज़मीं यानी वो काली दुनिया 
वो तुम्हारे शोहदा पालने वाली दुनिया 
गर्मी-ए-मेहर की परवरदा हिलाली दुनिया 
इश्क़ वाले जिसे कहते हैं बिलाली दुनिया 
तपिश-अंदोज़ है इस नाम से पारे की तरह 
ग़ोता-ज़न नूर में है आँख के तारे की तरह 
अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी 
मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी 
मा-सिवा-अल्लाह के लिए आग है तकबीर तिरी 
तू मुसलमाँ हो तो तक़दीर है तदबीर तिरी 
की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं 
ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं 

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dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai
par nahin taqat-e-parvaz magar rakhti hai 
qudsi-ul-asl hai rif.at pe nazar rakhti hai 
khaak se uThti hai gardun pe guzar rakhti hai 
ishq tha fitnagar o sarkash o chalak mira 
asman chiir gaya nala-e-bebak mira 
pir-e-gardun ne kaha sun ke kahin hai koi 
bole sayyare sar-e-arsh-e-barin hai koi 
chand kahta tha nahin ahl-e-zamin hai koi 
kahkashan kahti thi poshida yahin hai koi 
kuchh jo samjha mire shikve ko to rizvan samjha 
mujh ko jannat se nikala hua insan samjha 
thi farishton ko bhi hairat ki ye avaz hai kya 
arsh valon pe bhi khulta nahin ye raaz hai kya 
ta-sar-e-arsh bhi insan ki tag-o-taz hai kya 
aa ga.i khaak ki chuTki ko bhi parvaz hai kya 
ghafil adab se sukkan-e-zamin kaise hain 
shokh o gustakh ye pasti ke makin kaise hain 
is qadar shokh ki allah se bhi barham hai 
tha jo masjud-e-mala.ik ye vahi aadam hai 
alim-e-kaif hai dana-e-rumuz-e-kam hai 
haan magar ijz ke asrar se na-mahram hai 
naaz hai taqat-e-guftar pe insanon ko 
baat karne ka saliqa nahin na-danon ko 
aa.i avaz gham-angez hai afsana tira 
ashk-e-betab se labrez hai paimana tira 
asman-gir hua nara-e-mastana tira 
kis qadar shokh-zaban hai dil-e-divana tira 
shukr shikve ko kiya husn-e-ada se tu ne 
ham-sukhan kar diya bandon ko khuda se tu ne 
ham to ma.il-ba-karam hain koi saa.il hi nahin 
raah dikhla.en kise rah-rav-e-manzil hi nahin 
tarbiyat aam to hai jauhar-e-qabil hi nahin 
jis se ta.amir ho aadam ki ye vo gil hi nahin 
koi qabil ho to ham shan-e-ka.i dete hain 
DhunDne valon ko duniya bhi na.i dete hain 
haath be-zor hain ilhad se dil khugar hain 
ummati ba.is-e-rusva.i-e-paighambar hain 
but-shikan uTh ga.e baaqi jo rahe but-gar hain 
tha brahim pidar aur pisar aazar hain 
bada-asham na.e baada naya khum bhi na.e 
haram-e-kaba naya but bhi na.e tum bhi na.e 
vo bhi din the ki yahi maya-e-rana.i tha 
nazish-e-mausam-e-gul lala-e-sahra.i tha 
jo musalman tha allah ka sauda.i tha 
kabhi mahbub tumhara yahi harja.i tha 
kisi yakja.i se ab ahd-e-ghulami kar lo 
millat-e-ahmad-e-mursil ko maqami kar lo 
kis qadar tum pe giran sub.h ki bedari hai 
ham se kab pyaar hai haan niind tumhen pyari hai 
tab-e-azad pe qaid-e-ramazan bhari hai 
tumhin kah do yahi a.in-e-vafadari hai 
qaum maz.hab se hai maz.hab jo nahin tum bhi nahin 
jazb-e-baham jo nahin mahfil-e-anjum bhi nahin 
jin ko aata nahin duniya men koi fan tum ho 
nahin jis qaum ko parva-e-nasheman tum ho 
bijliyan jis men hon asuda vo khirman tum ho 
bech khate hain jo aslaf ke madfan tum ho 
ho niko naam jo qabron ki tijarat kar ke 
kya na bechoge jo mil jaa.en sanam patthar ke 
safha-e-dahr se batil ko miTaya kis ne 
nau-e-insan ko ghulami se chhuDaya kis ne 
mere ka.abe ko jabinon se basaya kis ne 
mere qur.an ko sinon se lagaya kis ne 
the to aaba vo tumhare hi magar tum kya ho 
haath par haath dhare muntazir-e-farda ho 
kya kaha bahr-e-musalman hai faqat vada-e-hur 
shikva beja bhi kare koi to lazim hai shu.ur 
adl hai fatir-e-hasti ka azal se dastur 
muslim aa.iin hua kafir to mile huur o qusur 
tum men huron ka koi chahne vaala hi nahin 
jalva-e-tur to maujud hai muusa hi nahin 
manfa.at ek hai is qaum ka nuqsan bhi ek 
ek hi sab ka nabi diin bhi iman bhi ek 
haram-e-pak bhi allah bhi qur.an bhi ek 
kuchh baDi baat thi hote jo musalman bhi ek 
firqa-bandi hai kahin aur kahin zaten hain 
kya zamane men panapne ki yahi baten hain 
kaun hai tarik-e-a.in-e-rasul-e-mukhtar 
maslahat vaqt ki hai kis ke amal ka me.aar 
kis ki ankhon men samaya hai shi.ar-e-aghyar 
ho ga.i kis ki nigah tarz-e-salaf se be-zar 
qalb men soz nahin ruuh men ehsas nahin 
kuchh bhi paigham-e-mohammad ka tumhen paas nahin 
ja ke hote hain masajid men saf-ara to gharib 
zahmat-e-roza jo karte hain gavara to gharib 
naam leta hai agar koi hamara to gharib 
parda rakhta hai agar koi tumhara to gharib 
umara nashsha-e-daulat men hain ghafil ham se 
zinda hai millat-e-baiza ghoraba ke dam se 
va.iz-e-qaum ki vo pukhta-khayali na rahi 
barq-e-tab.i na rahi shola-maqali na rahi 
rah ga.i rasm-e-azan ruh-e-bilali na rahi 
falsafa rah gaya talqin-e-ghazali na rahi 
masjiden marsiyan-khvan hain ki namazi na rahe 
yaani vo sahib-e-ausaf-e-hijazi na rahe 
shor hai ho ga.e duniya se musalman nabud 
ham ye kahte hain ki the bhi kahin muslim maujud 
vaz.a men tum ho nasara to tamaddun men hunud 
ye musalman hain jinhen dekh ke sharma.en yahud 
yuun to sayyad bhi ho mirza bhi ho afghan bhi ho 
tum sabhi kuchh ho batao to musalman bhi ho 
dam-e-taqrir thi muslim ki sadaqat bebak 
adl us ka tha qavi laus-e-mara.at se paak 
shajar-e-fitrat-e-muslim tha haya se namnak 
tha shuja.at men vo ik hasti-e-fauq-ul-idrak 
khud-gudazi nam-e-kaifiyat-e-sahba-yash buud 
khali-az-khesh shudan surat-e-mina-yash buud 
har musalman rag-e-batil ke liye nashtar tha 
us ke a.ina-e-hasti men amal jauhar tha 
jo bharosa tha use quvvat-e-bazu par tha 
hai tumhen maut ka Dar us ko khuda ka Dar tha 
baap ka ilm na beTe ko agar azbar ho 
phir pisar qabil-e-miras-e-pidar kyunkar ho 
har koi mast-e-mai-e-zauq-e-tan-asani hai 
tum musalman ho ye andaz-e-musalmani hai 
haidari faqr hai ne daulat-e-usmani hai 
tum ko aslaf se kya nisbat-e-ruhani hai 
vo zamane men muazziz the musalman ho kar 
aur tum khvar hue tarik-e-qur.an ho kar 
tum ho aapas men ghazabnak vo aapas men rahim 
tum khata-kar o khata-bin vo khata-posh o karim 
chahte sab hain ki hon auj-e-surayya pe muqim 
pahle vaisa koi paida to kare qalb-e-salim 
takht-e-faghfur bhi un ka tha sarir-e-ka.e bhi 
yuun hi baten hain ki tum men vo hamiyat hai bhi 
khud-kushi sheva tumhara vo ghayur o khuddar 
tum ukhuvvat se gurezan vo ukhuvvat pe nisar 
tum ho guftar sarapa vo sarapa kirdar 
tum taraste ho kali ko vo gulistan ba-kanar 
ab talak yaad hai qaumon ko hikayat un ki 
naqsh hai safha-e-hasti pe sadaqat un ki 
misl-e-anjum ufuq-e-qaum pe raushan bhi hue 
but-e-hindi ki mohabbat men birhman bhi hue 
shauq-e-parvaz men mahjur-e-nasheman bhi hue 
be-amal the hi javan diin se bad-zan bhi hue 
in ko tahzib ne har band se azad kiya 
la ke ka.abe se sanam-khane men abad kiya 
qais zahmat-kash-e-tanha.i-e-sahra na rahe 
shahr ki khaa.e hava badiya-paima na rahe 
vo to divana hai basti men rahe ya na rahe 
ye zaruri hai hijab-e-rukh-e-laila na rahe 
gila-e-zaur na ho shikva-e-bedad na ho 
ishq azad hai kyuun husn bhi azad na ho 
ahd-e-nau barq hai atish-zan-e-har-khirman hai 
aiman is se koi sahra na koi gulshan hai 
is na.i aag ka aqvam-e-kuhan indhan hai 
millat-e-khatm-e-rusul shola-ba-pairahan hai 
aaj bhi ho jo brahim ka iman paida 
aag kar sakti hai andaz-e-gulistan paida 
dekh kar rang-e-chaman ho na pareshan maali 
Kaukab-e-ghuncha se shakhen hain chamakne vaali 
khas o khashak se hota hai gulistan khali 
ghul-bar-andaz hai khun-e-shohda ki laali 
rang gardun ka zara dekh to unnabi hai
ye nikalte hue suraj ki ufuq-tabi hai 
ummaten gulshan-e-hasti men samar-chida bhi hain 
aur mahrum-e-samar bhi hain khizan-dida bhi hain 
saikDon nakhl hain kahida bhi balida bhi hain 
saikDon batn-e-chaman men abhi poshida bhi hain 
nakhl-e-islam namuna hai birau-mandi ka 
phal hai ye saikDon sadiyon ki chaman-bandi ka 
paak hai gard-e-vatan se sar-e-daman tera 
tu vo yusuf hai ki har misr hai kan.an tera 
qafila ho na sakega kabhi viran tera 
ghair yak-bang-e-dara kuchh nahin saman tera 
nakhl-e-shama asti o dar shola do-resha-e-tu 
aqibat-soz bavad saya-e-andesha-e-tu 
tu na miT ja.ega iran ke miT jaane se 
nashsha-e-mai ko ta.alluq nahin paimane se 
hai ayaan yurish-e-tatar ke afsane se 
pasban mil ga.e ka.abe ko sanam-khane se 
kashti-e-haq ka zamane men sahara tu hai 
asr-e-nau-rat hai dhundla sa sitara tu hai 
hai jo hangama bapa yurish-e-bulghari ka 
ghafilon ke liye paigham hai bedari ka 
tu samajhta hai ye saman hai dil-azari ka 
imtihan hai tire isar ka khuddari ka 
kyuun hirasan hai sahil-e-faras-e-ada se 
nur-e-haq bujh na sakega nafas-e-ada se 
chashm-e-aqvam se makhfi hai haqiqat teri 
hai abhi mahfil-e-hasti ko zarurat teri 
zinda rakhti hai zamane ko hararat teri 
kaukab-e-qismat-e-imkan hai khilafat teri 
vaqt-e-fursat hai kahan kaam abhi baaqi hai 
nur-e-tauhid ka itmam abhi baaqi hai 
misl-e-bu qaid hai ghunche men pareshan ho ja 
rakht-bar-dosh hava-e-chamanistan ho ja 
hai tunak-maya tu zarre se bayaban ho ja 
naghma-e-mauj hai hangama-e-tufan ho ja 
quvvat-e-ishq se har past ko baala kar de 
dahr men ism-e-mohammad se ujala kar de 
ho na ye phuul to bulbul ka tarannum bhi na ho 
chaman-e-dahr men kaliyon ka tabassum bhi na ho 
ye na saaqi ho to phir mai bhi na ho khum bhi na ho 
bazm-e-tauhid bhi duniya men na ho tum bhi na ho 
khema-e-aflak ka istada isi naam se hai 
nabz-e-hasti tapish-amada isi naam se hai 
dasht men daman-e-kohsar men maidan men hai 
bahr men mauj ki aghosh men tufan men hai 
chiin ke shahr maraqash ke bayaban men hai 
aur poshida musalman ke iman men hai 
chashm-e-aqvam ye nazzara abad tak dekhe 
rif.at-e-shan-e-rafana-laka-zikrak dekhe 
mardum-e-chashm-e-zamin yaani vo kaali duniya 
vo tumhare shohda palne vaali duniya 
garmi-e-mehr ki parvarda hilali duniya 
ishq vaale jise kahte hain bilali duniya 
tapish-andoz hai is naam se paare ki tarah 
ghota-zan nuur men hai aankh ke taare ki tarah 
aql hai teri sipar ishq hai shamshir tiri 
mire darvesh khilafat hai jahangir tiri 
ma-siva-allah ke liye aag hai takbir tiri 
tu musalman ho to taqdir hai tadbir tiri 
ki mohammad se vafa tu ne to ham tere hain 
ye jahan chiiz hai kya lauh-o-qalam tere hain
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2. shikwa Kyun ziyaan kar banun sud faramosh rahun Allama Iqbal..

क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ 
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ 
नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ 
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ 
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को 
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को 
है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम 
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम 
साज़ ख़ामोश हैं फ़रियाद से मामूर हैं हम 
नाला आता है अगर लब पे तो मा'ज़ूर हैं हम 
ऐ ख़ुदा शिकवा-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा भी सुन ले 
ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले 
थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम 
फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम 
शर्त इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम 
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम 
हम को जमईयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी 
वर्ना उम्मत तिरे महबूब की दीवानी थी 
हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र 
कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं मा'बूद शजर 
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र 
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर 
तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा 
क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा 
बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी 
अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी 
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी 
इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी 
पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने 
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने 
थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में 
ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में 
दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में 
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में 
शान आँखों में न जचती थी जहाँ-दारों की 
कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की 
हम जो जीते थे तो जंगों की मुसीबत के लिए 
और मरते थे तिरे नाम की अज़्मत के लिए 
थी न कुछ तेग़ज़नी अपनी हुकूमत के लिए 
सर-ब-कफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए 
क़ौम अपनी जो ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर मरती 
बुत-फ़रोशीं के एवज़ बुत-शिकनी क्यूँ करती 
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे 
पाँव शेरों के भी मैदाँ से उखड़ जाते थे 
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे 
तेग़ क्या चीज़ है हम तोप से लड़ जाते थे 
नक़्श-ए-तौहीद का हर दिल पे बिठाया हम ने 
ज़ेर-ए-ख़ंजर भी ये पैग़ाम सुनाया हम ने 
तू ही कह दे कि उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किस ने 
शहर क़ैसर का जो था उस को किया सर किस ने 
तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने 
काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने 
किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को 
किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को 
कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई 
और तेरे लिए ज़हमत-कश-ए-पैकार हुई 
किस की शमशीर जहाँगीर जहाँ-दार हुई 
किस की तकबीर से दुनिया तिरी बेदार हुई 
किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे 
मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे 
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़ 
क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़ 
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़ 
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा-नवाज़ 
बंदा ओ साहब ओ मोहताज ओ ग़नी एक हुए 
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए 
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ में सहर ओ शाम फिरे 
मय-ए-तौहीद को ले कर सिफ़त-ए-जाम फिरे 
कोह में दश्त में ले कर तिरा पैग़ाम फिरे 
और मालूम है तुझ को कभी नाकाम फिरे 
दश्त तो दश्त हैं दरिया भी न छोड़े हम ने 
बहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिए घोड़े हम ने 
सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया हम ने 
नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया हम ने 
तेरे का'बे को जबीनों से बसाया हम ने 
तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हम ने 
फिर भी हम से ये गिला है कि वफ़ादार नहीं 
हम वफ़ादार नहीं तू भी तो दिलदार नहीं 
उम्मतें और भी हैं उन में गुनहगार भी हैं 
इज्ज़ वाले भी हैं मस्त-ए-मय-ए-पिंदार भी हैं 
उन में काहिल भी हैं ग़ाफ़िल भी हैं हुश्यार भी हैं 
सैकड़ों हैं कि तिरे नाम से बे-ज़ार भी हैं 
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर 
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर 
बुत सनम-ख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए 
है ख़ुशी उन को कि का'बे के निगहबान गए 
मंज़िल-ए-दहर से ऊँटों के हुदी-ख़्वान गए 
अपनी बग़लों में दबाए हुए क़ुरआन गए 
ख़ंदा-ज़न कुफ़्र है एहसास तुझे है कि नहीं 
अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं 
ये शिकायत नहीं हैं उन के ख़ज़ाने मामूर 
नहीं महफ़िल में जिन्हें बात भी करने का शुऊ'र 
क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर 
और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर 
अब वो अल्ताफ़ नहीं हम पे इनायात नहीं 
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं 
क्यूँ मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब 
तेरी क़ुदरत तो है वो जिस की न हद है न हिसाब 
तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हबाब 
रह-रव-ए-दश्त हो सैली-ज़दा-ए-मौज-ए-सराब 
तान-ए-अग़्यार है रुस्वाई है नादारी है 
क्या तिरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है 
बनी अग़्यार की अब चाहने वाली दुनिया 
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया 
हम तो रुख़्सत हुए औरों ने सँभाली दुनिया 
फिर न कहना हुई तौहीद से ख़ाली दुनिया 
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तिरा नाम रहे 
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे जाम रहे 
तेरी महफ़िल भी गई चाहने वाले भी गए 
शब की आहें भी गईं सुब्ह के नाले भी गए 
दिल तुझे दे भी गए अपना सिला ले भी गए 
आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए 
आए उश्शाक़ गए वादा-ए-फ़र्दा ले कर 
अब उन्हें ढूँड चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा ले कर 
दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही 
नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही 
इश्क़ का दिल भी वही हुस्न का जादू भी वही 
उम्मत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल भी वही तू भी वही 
फिर ये आज़ुर्दगी-ए-ग़ैर सबब क्या मा'नी 
अपने शैदाओं पे ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मा'नी 
तुझ को छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा 
बुत-गरी पेशा किया बुत-शिकनी को छोड़ा 
इश्क़ को इश्क़ की आशुफ़्ता-सरी को छोड़ा 
रस्म-ए-सलमान ओ उवैस-ए-क़रनी को छोड़ा 
आग तकबीर की सीनों में दबी रखते हैं 
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबशी रखते हैं 
इश्क़ की ख़ैर वो पहली सी अदा भी न सही 
जादा-पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी न सही 
मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-क़िबला-नुमा भी न सही 
और पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा भी न सही 
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है 
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है 
सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तू ने 
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तू ने 
आतिश-अंदोज़ किया इश्क़ का हासिल तू ने 
फूँक दी गर्मी-ए-रुख़्सार से महफ़िल तू ने 
आज क्यूँ सीने हमारे शरर-आबाद नहीं 
हम वही सोख़्ता-सामाँ हैं तुझे याद नहीं 
वादी-ए-नज्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा 
क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा 
हौसले वो न रहे हम न रहे दिल न रहा 
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक़-ए-महफ़िल न रहा 
ऐ ख़ुशा आँ रोज़ कि आई ओ ब-सद नाज़ आई 
बे-हिजाबाना सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई 
बादा-कश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे 
सुनते हैं जाम-ब-कफ़ नग़्मा-ए-कू-कू बैठे 
दौर हंगामा-ए-गुलज़ार से यकसू बैठे 
तेरे दीवाने भी हैं मुंतज़िर-ए-हू बैठे 
अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे 
बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे 
क़ौम-ए-आवारा इनाँ-ताब है फिर सू-ए-हिजाज़ 
ले उड़ा बुलबुल-ए-बे-पर को मज़ाक़-ए-परवाज़ 
मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़ 
तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़ 
नग़्मे बेताब हैं तारों से निकलने के लिए 
तूर मुज़्तर है उसी आग में जलने के लिए 
मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम की आसाँ कर दे 
मोर-ए-बे-माया को हम-दोश-ए-सुलेमाँ कर दे 
जिंस-ए-नायाब-ए-मोहब्बत को फिर अर्ज़ां कर दे 
हिन्द के दैर-नशीनों को मुसलमाँ कर दे 
जू-ए-ख़ूँ मी चकद अज़ हसरत-ए-दैरीना-ए-मा 
मी तपद नाला ब-निश्तर कद-ए-सीना-ए-मा 
बू-ए-गुल ले गई बैरून-ए-चमन राज़-ए-चमन 
क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़-ए-चमन 
अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन 
उड़ गए डालियों से ज़मज़मा-पर्दाज़-ए-चमन 
एक बुलबुल है कि महव-ए-तरन्नुम अब तक 
उस के सीने में है नग़्मों का तलातुम अब तक 
क़ुमरियाँ शाख़-ए-सनोबर से गुरेज़ाँ भी हुईं 
पत्तियाँ फूल की झड़ झड़ के परेशाँ भी हुईं 
वो पुरानी रौशें बाग़ की वीराँ भी हुईं 
डालियाँ पैरहन-ए-बर्ग से उर्यां भी हुईं 
क़ैद-ए-मौसम से तबीअत रही आज़ाद उस की 
काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उस की 
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में 
कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में 
कितने बेताब हैं जौहर मिरे आईने में 
किस क़दर जल्वे तड़पते हैं मिरे सीने में 
इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं 
दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं 
चाक इस बुलबुल-ए-तन्हा की नवा से दिल हों 
जागने वाले इसी बाँग-ए-दरा से दिल हों 
या'नी फिर ज़िंदा नए अहद-ए-वफ़ा से दिल हों 
फिर इसी बादा-ए-दैरीना के प्यासे दिल हों 
अजमी ख़ुम है तो क्या मय तो हिजाज़ी है मिरी 
नग़्मा हिन्दी है तो क्या लय तो हिजाज़ी है मिरी 

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kyuun ziyan-kar banun sud-faramosh rahun
fikr-e-farda na karun mahv-e-gham-e-dosh rahun 
naale bulbul ke sunun aur hama-tan gosh rahun 
ham-nava main bhi koi gul huun ki khamosh rahun 
jur.at-amoz miri tab-e-sukhan hai mujh ko 
shikva allah se khakam-ba-dahan hai mujh ko 
hai baja sheva-e-taslim men mash.hur hain ham 
qissa-e-dard sunate hain ki majbur hain ham 
saaz khamosh hain fariyad se mamur hain ham 
naala aata hai agar lab pe to ma.azur hain ham 
ai khuda shikva-e-arbab-e-vafa bhi sun le 
khugar-e-hamd se thoDa sa gila bhi sun le 
thi to maujud azal se hi tiri zat-e-qadim 
phuul tha zeb-e-chaman par na pareshan thi shamim 
shart insaf hai ai sahib-e-altaf-e-amim 
bu-e-gul phailti kis tarah jo hoti na nasim 
ham ko jam.iyat-e-khatir ye pareshani thi 
varna ummat tire mahbub ki divani thi 
ham se pahle tha ajab tere jahan ka manzar 
kahin masjud the patthar kahin ma.abud shajar 
khugar-e-paikar-e-mahsus thi insan ki nazar 
manta phir koi an-dekhe khuda ko kyunkar 
tujh ko ma.alum hai leta tha koi naam tira 
quvvat-e-bazu-e-muslim ne kiya kaam tira 
bas rahe the yahin saljuq bhi turani bhi 
ahl-e-chin chiin men iran men sasani bhi 
isi mamure men abad the yunani bhi 
isi duniya men yahudi bhi the nasrani bhi 
par tire naam pe talvar uTha.i kis ne 
baat jo bigDi hui thi vo bana.i kis ne 
the hamin ek tire marka-araon men 
khushkiyon men kabhi laDte kabhi dariyaon men 
diin azanen kabhi europe ke kalisaon men 
kabhi africa ke tapte hue sahraon men 
shaan ankhon men na jachti thi jahan-daron ki 
kalma paDhte the hamin chhanv men talvaron ki 
ham jo jiite the to jangon ki musibat ke liye 
aur marte the tire naam ki azmat ke liye 
thi na kuchh teghzani apni hukumat ke liye 
sar-ba-kaf phirte the kya dahr men daulat ke liye 
qaum apni jo zar-o-mal-e-jahan par marti 
but-faroshi ke evaz but-shikani kyuun karti 
Tal na sakte the agar jang men aD jaate the 
paanv sheron ke bhi maidan se ukhaD jaate the 
tujh se sarkash hua koi to bigaD jaate the 
tegh kya chiiz hai ham top se laD jaate the 
naqsh-e-tauhid ka har dil pe biThaya ham ne 
zer-e-khanjar bhi ye paigham sunaya ham ne 
tu hi kah de ki ukhaDa dar-e-khaibar kis ne 
shahr qaisar ka jo tha us ko kiya sar kis ne 
toDe makhluq khuda-vandon ke paikar kis ne 
kaaT kar rakh diye kuffar ke lashkar kis ne 
kis ne ThanDa kiya atish-kada-e-iran ko 
kis ne phir zinda kiya tazkira-e-yazdan ko 
kaun si qaum faqat teri talabgar hui 
aur tere liye zahmat-kash-e-paikar hui 
kis ki shamshir jahangir jahan-dar hui 
kis ki takbir se duniya tiri bedar hui 
kis ki haibat se sanam sahme hue rahte the 
munh ke bal gir ke hu-allahu-ahad kahte the 
aa gaya ain laDa.i men agar vaqt-e-namaz 
qibla-ru ho ke zamin-bos hui qaum-e-hijaz 
ek hi saf men khaDe ho ga.e mahmud o ayaaz 
na koi banda raha aur na koi banda-navaz
banda o sahab o mohtaj o ghani ek hue 
teri sarkar men pahunche to sabhi ek hue 
mahfil-e-kaun-o-makan men sahar o shaam phire 
mai-e-tauhid ko le kar sifat-e-jam phire 
koh men dasht men le kar tira paigham phire 
aur ma.alum hai tujh ko kabhi nakam phire 
dasht to dasht hain dariya bhi na chhoDe ham ne 
bahr-e-zulmat men dauDa diye ghoDe ham ne 
safha-e-dahr se batil ko miTaya ham ne 
nau-e-insan ko ghulami se chhuDaya ham ne 
tere ka.abe ko jabinon se basaya ham ne 
tere qur.an ko sinon se lagaya ham ne 
phir bhi ham se ye gila hai ki vafadar nahin 
ham vafadar nahin tu bhi to dildar nahin 
ummaten aur bhi hain un men gunahgar bhi hain 
ijz vaale bhi hain mast-e-mai-e-pindar bhi hain 
un men kahil bhi hain ghafil bhi hain hushyar bhi hain 
saikDon hain ki tire naam se be-zar bhi hain 
rahmaten hain tiri aghyar ke kashanon par 
barq girti hai to bechare musalmanon par 
but sanam-khanon men kahte hain musalman ga.e 
hai khushi un ko ki ka.abe ke nigahban ga.e 
manzil-e-dahr se unTon ke hudi-khvan ga.e 
apni baghlon men daba.e hue qur.an ga.e 
khanda-zan kufr hai ehsas tujhe hai ki nahin 
apni tauhid ka kuchh paas tujhe hai ki nahin 
ye shikayat nahin hain un ke khazane mamur 
nahin mahfil men jinhen baat bhi karne ka shu.ur 
qahr to ye hai ki kafir ko milen huur o qusur 
aur bechare musalman ko faqat vada-e-hur 
ab vo altaf nahin ham pe inayat nahin 
baat ye kya hai ki pahli si mudarat nahin 
kyuun musalmanon men hai daulat-e-duniya nayab 
teri qudrat to hai vo jis ki na had hai na hisab 
tu jo chahe to uThe sina-e-sahra se habab 
rah-rav-e-dasht ho saili-zada-e-mauj-e-sarab 
tan-e-aghyar hai rusva.i hai nadari hai 
kya tire naam pe marne ka evaz khvari hai 
bani aghyar ki ab chahne vaali duniya 
rah ga.i apne liye ek khayali duniya 
ham to rukhsat hue auron ne sanbhali duniya 
phir na kahna hui tauhid se khali duniya 
ham to jiite hain ki duniya men tira naam rahe 
kahin mumkin hai ki saaqi na rahe jaam rahe 
teri mahfil bhi ga.i chahne vaale bhi ga.e 
shab ki aahen bhi ga.iin sub.h ke naale bhi ga.e 
dil tujhe de bhi ga.e apna sila le bhi ga.e 
aa ke baiThe bhi na the aur nikale bhi ga.e 
aa.e ushshaq ga.e vada-e-farda le kar 
ab unhen DhunD charagh-e-rukh-e-zeba le kar 
dard-e-laila bhi vahi qais ka pahlu bhi vahi 
najd ke dasht o jabal men ram-e-ahu bhi vahi 
ishq ka dil bhi vahi husn ka jaadu bhi vahi 
ummat-e-ahmad-e-mursil bhi vahi tu bhi vahi 
phir ye azurdagi-e-ghair sabab kya ma.ani 
apne shaidaon pe ye chashm-e-ghazab kya ma.ani 
tujh ko chhoDa ki rasul-e-arabi ko chhoDa 
but-gari pesha kiya but-shikani ko chhoDa 
ishq ko ishq ki ashufta-sari ko chhoDa 
rasm-e-salman o uvais-e-qarani ko chhoDa 
aag takbir ki sinon men dabi rakhte hain 
zindagi misl-e-bilal-e-habashi rakhte hain 
ishq ki khair vo pahli si ada bhi na sahi 
jada-paimali-e-taslim-o-raza bhi na sahi 
muztarib dil sifat-e-qibla-numa bhi na sahi 
aur pabandi-e-a.in-e-vafa bhi na sahi 
kabhi ham se kabhi ghairon se shanasa.i hai 
baat kahne ki nahin tu bhi to harja.i hai 
sar-e-faran pe kiya diin ko kamil tu ne 
ik ishare men hazaron ke liye dil tu ne 
atish-andoz kiya ishq ka hasil tu ne 
phunk di garmi-e-rukhsar se mahfil tu ne 
aaj kyuun siine hamare sharer-abad nahin 
ham vahi sokhta-saman hain tujhe yaad nahin 
vadi-e-najd men vo shor-e-salasil na raha 
qais divana-e-nazzara-e-mahmil na raha 
hausle vo na rahe ham na rahe dil na raha 
ghar ye ujDa hai ki tu raunaq-e-mahfil na raha 
ai khusha aan roz ki aa.i o ba-sad naaz aa.i 
be-hijabana su-e-mahfil-e-ma baaz aa.i 
bada-kash ghair hain gulshan men lab-e-ju baiThe 
sunte hain jam-ba-kaf naghma-e-ku-ku baiThe 
daur hangama-e-gulzar se yaksu baiThe 
tere divane bhi hain muntazir-e-hu baiThe 
apne parvanon ko phir zauq-e-khud-afrozi de 
barq-e-derina ko farman-e-jigar-sozi de 
qaum-e-avara inan-tab hai phir su-e-hijaz 
le uDa bulbul-e-be-par ko mazaq-e-parvaz 
muztarib-e-bagh ke har ghunche men hai bu-e-niyaz 
tu zara chheD to de tishna-e-mizrab hai saaz 
naghme betab hain taron se nikalne ke liye 
tuur muztar hai usi aag men jalne ke liye 
mushkilen ummat-e-marhum ki asan kar de 
mor-e-be-maya ko ham-dosh-e-sulaiman kar de 
jins-e-nayab-e-mohabbat ko phir arzan kar de 
hind ke dair-nashinon ko musalman kar de
ju-e-khun mi chakad az hasrat-e-dairina-e-ma 
mi tapad naala ba-nishtar kada-e-sina-e-ma 
bu-e-gul le ga.i bairun-e-chaman raz-e-chaman 
kya qayamat hai ki khud phuul hain ghammaz-e-chaman 
ahd-e-gul khatm hua TuuT gaya saz-e-chaman 
uD ga.e Daliyon se zamzama-pardaz-e-chaman 
ek bulbul hai ki mahv-e-tarannum ab tak 
us ke siine men hai naghmon ka talatum ab tak 
qumriyan shakh-e-sanobar se gurezan bhi huiin 
pattiyan phuul ki jhaD jhaD ke pareshan bhi huiin 
vo purani raushen baagh ki viran bhi huiin 
Daliyan pairahan-e-barg se uryan bhi huiin 
qaid-e-mausam se tabi.at rahi azad us ki 
kaash gulshan men samajhta koi fariyad us ki 
lutf marne men hai baaqi na maza jiine men 
kuchh maza hai to yahi khun-e-jigar piine men 
kitne betab hain jauhar mire a.ine men 
kis qadar jalve taDapte hain mire siine men 
is gulistan men magar dekhne vaale hi nahin 
daagh jo siine men rakhte hon vo laale hi nahin 
chaak is bulbul-e-tanha ki nava se dil hon 
jagne vaale isi bang-e-dara se dil hon 
ya.ani phir zinda na.e ahd-e-vafa se dil hon 
phir isi bada-e-dairina ke pyase dil hon 
ajami khum hai to kya mai to hijazi hai miri 
naghma hindi hai to kya lai to hijazi hai miri
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3. Masjid To Bana Di Shab Bhar Mein Iman Ki Hararat Walon Ne..

Masjid To Bana Di Shab Bhar Mein Iman Ki Hararat Walon Ne
Mann Apna Purana Papi Hai, Barsoun Mein Namazi Ban Na Saka 

Kya Khoob Ameer-e-Faisal Ko Sannosi Ne Paigham Diya
Tu Naam-o-Nasb Ka Hijazi Hai Par Dil Ka Hijazi Ban Na Saka 

Tar Ankhain To Ho Jati Hain, Kya Lazzat Iss Rone Mein
Jab Khoon-e-Jigar Ki Amaizish Se Ashak Piyazi Ban Na Saka 

Iqbal Bara Updeshak Hai, Mann Baaton Mein Moh Leta Hai
Guftar Ka Ye Ghazi To Bana, Kirdar Ka Ghazi Ban Na Saka
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