दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है
क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है
ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है
इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा
आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा
पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई
बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई
कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा
मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा
थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या
अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या
ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या
आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या
ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं
शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं
इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है
था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है
आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है
हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है
नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को
बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को
आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा
अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा
आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा
किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा
शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू ने
हम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने
हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं
राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं
तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं
जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं
कोई क़ाबिल हो तो हम शान-ए-कई देते हैं
ढूँडने वालों को दुनिया भी नई देते हैं
हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं
उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं
बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं
था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं
बादा-आशाम नए बादा नया ख़ुम भी नए
हरम-ए-काबा नया बुत भी नए तुम भी नए
वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था
नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था
जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था
कभी महबूब तुम्हारा यही हरजाई था
किसी यकजाई से अब अहद-ए-ग़ुलामी कर लो
मिल्लत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल को मक़ामी कर लो
किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है
तब-ए-आज़ाद पे क़ैद-ए-रमज़ाँ भारी है
तुम्हीं कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है
क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं
जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं
जिन को आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो
नहीं जिस क़ौम को परवा-ए-नशेमन तुम हो
बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो
बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो
हो निको नाम जो क़ब्रों की तिजारत कर के
क्या न बेचोगे जो मिल जाएँ सनम पत्थर के
सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया किस ने
नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया किस ने
मेरे काबे को जबीनों से बसाया किस ने
मेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया किस ने
थे तो आबा वो तुम्हारे ही मगर तुम क्या हो
हाथ पर हाथ धरे मुंतज़िर-ए-फ़र्दा हो
क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर
शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर
अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर
मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर
तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं
जल्वा-ए-तूर तो मौजूद है मूसा ही नहीं
मंफ़अत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक
एक ही सब का नबी दीन भी ईमान भी एक
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक
कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक
फ़िरक़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं
कौन है तारिक-ए-आईन-ए-रसूल-ए-मुख़्तार
मस्लहत वक़्त की है किस के अमल का मेआर
किस की आँखों में समाया है शिआर-ए-अग़्यार
हो गई किस की निगह तर्ज़-ए-सलफ़ से बे-ज़ार
क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं
कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब
पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब
उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से
ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से
वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही
बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही
फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे
शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद
हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद
वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद
ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो
दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाक
अदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक
शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक
था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक
ख़ुद-गुदाज़ी नम-ए-कैफ़ियत-ए-सहबा-यश बूद
ख़ाली-अज़-ख़ेश शुदन सूरत-ए-मीना-यश बूद
हर मुसलमाँ रग-ए-बातिल के लिए नश्तर था
उस के आईना-ए-हस्ती में अमल जौहर था
जो भरोसा था उसे क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर था
है तुम्हें मौत का डर उस को ख़ुदा का डर था
बाप का इल्म न बेटे को अगर अज़बर हो
फिर पिसर क़ाबिल-ए-मीरास-ए-पिदर क्यूँकर हो
हर कोई मस्त-ए-मय-ए-ज़ौक़-ए-तन-आसानी है
तुम मुसलमाँ हो ये अंदाज़-ए-मुसलमानी है
हैदरी फ़क़्र है ने दौलत-ए-उस्मानी है
तुम को अस्लाफ़ से क्या निस्बत-ए-रूहानी है
वो ज़माने में मुअज़्ज़िज़ थे मुसलमाँ हो कर
और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआँ हो कर
तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम
तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम
चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम
पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम
तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी
यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी
ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार
तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार
तुम हो गुफ़्तार सरापा वो सरापा किरदार
तुम तरसते हो कली को वो गुलिस्ताँ ब-कनार
अब तलक याद है क़ौमों को हिकायत उन की
नक़्श है सफ़्हा-ए-हस्ती पे सदाक़त उन की
मिस्ल-ए-अंजुम उफ़ुक़-ए-क़ौम पे रौशन भी हुए
बुत-ए-हिन्दी की मोहब्बत में बिरहमन भी हुए
शौक़-ए-परवाज़ में महजूर-ए-नशेमन भी हुए
बे-अमल थे ही जवाँ दीन से बद-ज़न भी हुए
इन को तहज़ीब ने हर बंद से आज़ाद किया
ला के काबे से सनम-ख़ाने में आबाद किया
क़ैस ज़हमत-कश-ए-तन्हाई-ए-सहरा न रहे
शहर की खाए हवा बादिया-पैमा न रहे
वो तो दीवाना है बस्ती में रहे या न रहे
ये ज़रूरी है हिजाब-ए-रुख़-ए-लैला न रहे
गिला-ए-ज़ौर न हो शिकवा-ए-बेदाद न हो
इश्क़ आज़ाद है क्यूँ हुस्न भी आज़ाद न हो
अहद-ए-नौ बर्क़ है आतिश-ज़न-ए-हर-ख़िर्मन है
ऐमन इस से कोई सहरा न कोई गुलशन है
इस नई आग का अक़्वाम-ए-कुहन ईंधन है
मिल्लत-ए-ख़त्म-ए-रसूल शोला-ब-पैराहन है
आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा
आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा
देख कर रंग-ए-चमन हो न परेशाँ माली
कौकब-ए-ग़ुंचा से शाख़ें हैं चमकने वाली
ख़स ओ ख़ाशाक से होता है गुलिस्ताँ ख़ाली
गुल-बर-अंदाज़ है ख़ून-ए-शोहदा की लाली
रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है
ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं
सैकड़ों नख़्ल हैं काहीदा भी बालीदा भी हैं
सैकड़ों बत्न-ए-चमन में अभी पोशीदा भी हैं
नख़्ल-ए-इस्लाम नमूना है बिरौ-मंदी का
फल है ये सैकड़ों सदियों की चमन-बंदी का
पाक है गर्द-ए-वतन से सर-ए-दामाँ तेरा
तू वो यूसुफ़ है कि हर मिस्र है कनआँ तेरा
क़ाफ़िला हो न सकेगा कभी वीराँ तेरा
ग़ैर यक-बाँग-ए-दारा कुछ नहीं सामाँ तेरा
नख़्ल-ए-शमा अस्ती ओ दर शोला दो-रेशा-ए-तू
आक़िबत-सोज़ बवद साया-ए-अँदेशा-ए-तू
तू न मिट जाएगा ईरान के मिट जाने से
नश्शा-ए-मय को तअल्लुक़ नहीं पैमाने से
है अयाँ यूरिश-ए-तातार के अफ़्साने से
पासबाँ मिल गए काबे को सनम-ख़ाने से
कश्ती-ए-हक़ का ज़माने में सहारा तू है
अस्र-ए-नौ-रात है धुँदला सा सितारा तू है
है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का
ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का
तू समझता है ये सामाँ है दिल-आज़ारी का
इम्तिहाँ है तिरे ईसार का ख़ुद्दारी का
क्यूँ हिरासाँ है सहिल-ए-फ़रस-ए-आदा से
नूर-ए-हक़ बुझ न सकेगा नफ़स-ए-आदा से
चश्म-ए-अक़्वाम से मख़्फ़ी है हक़ीक़त तेरी
है अभी महफ़िल-ए-हस्ती को ज़रूरत तेरी
ज़िंदा रखती है ज़माने को हरारत तेरी
कौकब-ए-क़िस्मत-ए-इम्काँ है ख़िलाफ़त तेरी
वक़्त-ए-फ़ुर्सत है कहाँ काम अभी बाक़ी है
नूर-ए-तौहीद का इत्माम अभी बाक़ी है
मिस्ल-ए-बू क़ैद है ग़ुंचे में परेशाँ हो जा
रख़्त-बर-दोश हवा-ए-चमनिस्ताँ हो जा
है तुनक-माया तू ज़र्रे से बयाबाँ हो जा
नग़्मा-ए-मौज है हंगामा-ए-तूफ़ाँ हो जा
क़ुव्वत-ए-इश्क़ से हर पस्त को बाला कर दे
दहर में इस्म-ए-मोहम्मद से उजाला कर दे
हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो
चमन-ए-दह्र में कलियों का तबस्सुम भी न हो
ये न साक़ी हो तो फिर मय भी न हो ख़ुम भी न हो
बज़्म-ए-तौहीद भी दुनिया में न हो तुम भी न हो
ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का इस्तादा इसी नाम से है
नब्ज़-ए-हस्ती तपिश-आमादा इसी नाम से है
दश्त में दामन-ए-कोहसार में मैदान में है
बहर में मौज की आग़ोश में तूफ़ान में है
चीन के शहर मराक़श के बयाबान में है
और पोशीदा मुसलमान के ईमान में है
चश्म-ए-अक़्वाम ये नज़्ज़ारा अबद तक देखे
रिफ़अत-ए-शान-ए-रफ़ाना-लका-ज़िक्र देखे
मर्दुम-ए-चश्म-ए-ज़मीं यानी वो काली दुनिया
वो तुम्हारे शोहदा पालने वाली दुनिया
गर्मी-ए-मेहर की परवरदा हिलाली दुनिया
इश्क़ वाले जिसे कहते हैं बिलाली दुनिया
तपिश-अंदोज़ है इस नाम से पारे की तरह
ग़ोता-ज़न नूर में है आँख के तारे की तरह
अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी
मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी
मा-सिवा-अल्लाह के लिए आग है तकबीर तिरी
तू मुसलमाँ हो तो तक़दीर है तदबीर तिरी
की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं
ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं
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dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai
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dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai
par nahin taqat-e-parvaz magar rakhti hai
qudsi-ul-asl hai rif.at pe nazar rakhti hai
khaak se uThti hai gardun pe guzar rakhti hai
ishq tha fitnagar o sarkash o chalak mira
asman chiir gaya nala-e-bebak mira
pir-e-gardun ne kaha sun ke kahin hai koi
bole sayyare sar-e-arsh-e-barin hai koi
chand kahta tha nahin ahl-e-zamin hai koi
kahkashan kahti thi poshida yahin hai koi
kuchh jo samjha mire shikve ko to rizvan samjha
mujh ko jannat se nikala hua insan samjha
thi farishton ko bhi hairat ki ye avaz hai kya
arsh valon pe bhi khulta nahin ye raaz hai kya
ta-sar-e-arsh bhi insan ki tag-o-taz hai kya
aa ga.i khaak ki chuTki ko bhi parvaz hai kya
ghafil adab se sukkan-e-zamin kaise hain
shokh o gustakh ye pasti ke makin kaise hain
is qadar shokh ki allah se bhi barham hai
tha jo masjud-e-mala.ik ye vahi aadam hai
alim-e-kaif hai dana-e-rumuz-e-kam hai
haan magar ijz ke asrar se na-mahram hai
naaz hai taqat-e-guftar pe insanon ko
baat karne ka saliqa nahin na-danon ko
aa.i avaz gham-angez hai afsana tira
ashk-e-betab se labrez hai paimana tira
asman-gir hua nara-e-mastana tira
kis qadar shokh-zaban hai dil-e-divana tira
shukr shikve ko kiya husn-e-ada se tu ne
ham-sukhan kar diya bandon ko khuda se tu ne
ham to ma.il-ba-karam hain koi saa.il hi nahin
raah dikhla.en kise rah-rav-e-manzil hi nahin
tarbiyat aam to hai jauhar-e-qabil hi nahin
jis se ta.amir ho aadam ki ye vo gil hi nahin
koi qabil ho to ham shan-e-ka.i dete hain
DhunDne valon ko duniya bhi na.i dete hain
haath be-zor hain ilhad se dil khugar hain
ummati ba.is-e-rusva.i-e-paighambar hain
but-shikan uTh ga.e baaqi jo rahe but-gar hain
tha brahim pidar aur pisar aazar hain
bada-asham na.e baada naya khum bhi na.e
haram-e-kaba naya but bhi na.e tum bhi na.e
vo bhi din the ki yahi maya-e-rana.i tha
nazish-e-mausam-e-gul lala-e-sahra.i tha
jo musalman tha allah ka sauda.i tha
kabhi mahbub tumhara yahi harja.i tha
kisi yakja.i se ab ahd-e-ghulami kar lo
millat-e-ahmad-e-mursil ko maqami kar lo
kis qadar tum pe giran sub.h ki bedari hai
ham se kab pyaar hai haan niind tumhen pyari hai
tab-e-azad pe qaid-e-ramazan bhari hai
tumhin kah do yahi a.in-e-vafadari hai
qaum maz.hab se hai maz.hab jo nahin tum bhi nahin
jazb-e-baham jo nahin mahfil-e-anjum bhi nahin
jin ko aata nahin duniya men koi fan tum ho
nahin jis qaum ko parva-e-nasheman tum ho
bijliyan jis men hon asuda vo khirman tum ho
bech khate hain jo aslaf ke madfan tum ho
ho niko naam jo qabron ki tijarat kar ke
kya na bechoge jo mil jaa.en sanam patthar ke
safha-e-dahr se batil ko miTaya kis ne
nau-e-insan ko ghulami se chhuDaya kis ne
mere ka.abe ko jabinon se basaya kis ne
mere qur.an ko sinon se lagaya kis ne
the to aaba vo tumhare hi magar tum kya ho
haath par haath dhare muntazir-e-farda ho
kya kaha bahr-e-musalman hai faqat vada-e-hur
shikva beja bhi kare koi to lazim hai shu.ur
adl hai fatir-e-hasti ka azal se dastur
muslim aa.iin hua kafir to mile huur o qusur
tum men huron ka koi chahne vaala hi nahin
jalva-e-tur to maujud hai muusa hi nahin
manfa.at ek hai is qaum ka nuqsan bhi ek
ek hi sab ka nabi diin bhi iman bhi ek
haram-e-pak bhi allah bhi qur.an bhi ek
kuchh baDi baat thi hote jo musalman bhi ek
firqa-bandi hai kahin aur kahin zaten hain
kya zamane men panapne ki yahi baten hain
kaun hai tarik-e-a.in-e-rasul-e-mukhtar
maslahat vaqt ki hai kis ke amal ka me.aar
kis ki ankhon men samaya hai shi.ar-e-aghyar
ho ga.i kis ki nigah tarz-e-salaf se be-zar
qalb men soz nahin ruuh men ehsas nahin
kuchh bhi paigham-e-mohammad ka tumhen paas nahin
ja ke hote hain masajid men saf-ara to gharib
zahmat-e-roza jo karte hain gavara to gharib
naam leta hai agar koi hamara to gharib
parda rakhta hai agar koi tumhara to gharib
umara nashsha-e-daulat men hain ghafil ham se
zinda hai millat-e-baiza ghoraba ke dam se
va.iz-e-qaum ki vo pukhta-khayali na rahi
barq-e-tab.i na rahi shola-maqali na rahi
rah ga.i rasm-e-azan ruh-e-bilali na rahi
falsafa rah gaya talqin-e-ghazali na rahi
masjiden marsiyan-khvan hain ki namazi na rahe
yaani vo sahib-e-ausaf-e-hijazi na rahe
shor hai ho ga.e duniya se musalman nabud
ham ye kahte hain ki the bhi kahin muslim maujud
vaz.a men tum ho nasara to tamaddun men hunud
ye musalman hain jinhen dekh ke sharma.en yahud
yuun to sayyad bhi ho mirza bhi ho afghan bhi ho
tum sabhi kuchh ho batao to musalman bhi ho
dam-e-taqrir thi muslim ki sadaqat bebak
adl us ka tha qavi laus-e-mara.at se paak
shajar-e-fitrat-e-muslim tha haya se namnak
tha shuja.at men vo ik hasti-e-fauq-ul-idrak
khud-gudazi nam-e-kaifiyat-e-sahba-yash buud
khali-az-khesh shudan surat-e-mina-yash buud
har musalman rag-e-batil ke liye nashtar tha
us ke a.ina-e-hasti men amal jauhar tha
jo bharosa tha use quvvat-e-bazu par tha
hai tumhen maut ka Dar us ko khuda ka Dar tha
baap ka ilm na beTe ko agar azbar ho
phir pisar qabil-e-miras-e-pidar kyunkar ho
har koi mast-e-mai-e-zauq-e-tan-asani hai
tum musalman ho ye andaz-e-musalmani hai
haidari faqr hai ne daulat-e-usmani hai
tum ko aslaf se kya nisbat-e-ruhani hai
vo zamane men muazziz the musalman ho kar
aur tum khvar hue tarik-e-qur.an ho kar
tum ho aapas men ghazabnak vo aapas men rahim
tum khata-kar o khata-bin vo khata-posh o karim
chahte sab hain ki hon auj-e-surayya pe muqim
pahle vaisa koi paida to kare qalb-e-salim
takht-e-faghfur bhi un ka tha sarir-e-ka.e bhi
yuun hi baten hain ki tum men vo hamiyat hai bhi
khud-kushi sheva tumhara vo ghayur o khuddar
tum ukhuvvat se gurezan vo ukhuvvat pe nisar
tum ho guftar sarapa vo sarapa kirdar
tum taraste ho kali ko vo gulistan ba-kanar
ab talak yaad hai qaumon ko hikayat un ki
naqsh hai safha-e-hasti pe sadaqat un ki
misl-e-anjum ufuq-e-qaum pe raushan bhi hue
but-e-hindi ki mohabbat men birhman bhi hue
shauq-e-parvaz men mahjur-e-nasheman bhi hue
be-amal the hi javan diin se bad-zan bhi hue
in ko tahzib ne har band se azad kiya
la ke ka.abe se sanam-khane men abad kiya
qais zahmat-kash-e-tanha.i-e-sahra na rahe
shahr ki khaa.e hava badiya-paima na rahe
vo to divana hai basti men rahe ya na rahe
ye zaruri hai hijab-e-rukh-e-laila na rahe
gila-e-zaur na ho shikva-e-bedad na ho
ishq azad hai kyuun husn bhi azad na ho
ahd-e-nau barq hai atish-zan-e-har-khirman hai
aiman is se koi sahra na koi gulshan hai
is na.i aag ka aqvam-e-kuhan indhan hai
millat-e-khatm-e-rusul shola-ba-pairahan hai
aaj bhi ho jo brahim ka iman paida
aag kar sakti hai andaz-e-gulistan paida
dekh kar rang-e-chaman ho na pareshan maali
Kaukab-e-ghuncha se shakhen hain chamakne vaali
khas o khashak se hota hai gulistan khali
ghul-bar-andaz hai khun-e-shohda ki laali
rang gardun ka zara dekh to unnabi hai
ye nikalte hue suraj ki ufuq-tabi hai
ummaten gulshan-e-hasti men samar-chida bhi hain
aur mahrum-e-samar bhi hain khizan-dida bhi hain
saikDon nakhl hain kahida bhi balida bhi hain
saikDon batn-e-chaman men abhi poshida bhi hain
nakhl-e-islam namuna hai birau-mandi ka
phal hai ye saikDon sadiyon ki chaman-bandi ka
paak hai gard-e-vatan se sar-e-daman tera
tu vo yusuf hai ki har misr hai kan.an tera
qafila ho na sakega kabhi viran tera
ghair yak-bang-e-dara kuchh nahin saman tera
nakhl-e-shama asti o dar shola do-resha-e-tu
aqibat-soz bavad saya-e-andesha-e-tu
tu na miT ja.ega iran ke miT jaane se
nashsha-e-mai ko ta.alluq nahin paimane se
hai ayaan yurish-e-tatar ke afsane se
pasban mil ga.e ka.abe ko sanam-khane se
kashti-e-haq ka zamane men sahara tu hai
asr-e-nau-rat hai dhundla sa sitara tu hai
hai jo hangama bapa yurish-e-bulghari ka
ghafilon ke liye paigham hai bedari ka
tu samajhta hai ye saman hai dil-azari ka
imtihan hai tire isar ka khuddari ka
kyuun hirasan hai sahil-e-faras-e-ada se
nur-e-haq bujh na sakega nafas-e-ada se
chashm-e-aqvam se makhfi hai haqiqat teri
hai abhi mahfil-e-hasti ko zarurat teri
zinda rakhti hai zamane ko hararat teri
kaukab-e-qismat-e-imkan hai khilafat teri
vaqt-e-fursat hai kahan kaam abhi baaqi hai
nur-e-tauhid ka itmam abhi baaqi hai
misl-e-bu qaid hai ghunche men pareshan ho ja
rakht-bar-dosh hava-e-chamanistan ho ja
hai tunak-maya tu zarre se bayaban ho ja
naghma-e-mauj hai hangama-e-tufan ho ja
quvvat-e-ishq se har past ko baala kar de
dahr men ism-e-mohammad se ujala kar de
ho na ye phuul to bulbul ka tarannum bhi na ho
chaman-e-dahr men kaliyon ka tabassum bhi na ho
ye na saaqi ho to phir mai bhi na ho khum bhi na ho
bazm-e-tauhid bhi duniya men na ho tum bhi na ho
khema-e-aflak ka istada isi naam se hai
nabz-e-hasti tapish-amada isi naam se hai
dasht men daman-e-kohsar men maidan men hai
bahr men mauj ki aghosh men tufan men hai
chiin ke shahr maraqash ke bayaban men hai
aur poshida musalman ke iman men hai
chashm-e-aqvam ye nazzara abad tak dekhe
rif.at-e-shan-e-rafana-laka-zikrak dekhe
mardum-e-chashm-e-zamin yaani vo kaali duniya
vo tumhare shohda palne vaali duniya
garmi-e-mehr ki parvarda hilali duniya
ishq vaale jise kahte hain bilali duniya
tapish-andoz hai is naam se paare ki tarah
ghota-zan nuur men hai aankh ke taare ki tarah
aql hai teri sipar ishq hai shamshir tiri
mire darvesh khilafat hai jahangir tiri
ma-siva-allah ke liye aag hai takbir tiri
tu musalman ho to taqdir hai tadbir tiri
ki mohammad se vafa tu ne to ham tere hain
ye jahan chiiz hai kya lauh-o-qalam tere hain