जो हम पे गुज़रे थे रंज सारे जो ख़ुद पे गुज़रे तो लोग समझे
जब अपनी अपनी मोहब्बतों के अज़ाब झेले तो लोग समझे
वो जिन दरख़्तों की छाँव में से मुसाफ़िरों को उठा दिया था
उन्हीं दरख़्तों पे अगले मौसम जो फल न उतरे तो लोग समझे
उस एक कच्ची सी उम्र वाली के फ़ल्सफ़े को कोई न समझा
जब उस के कमरे से लाश निकली ख़ुतूत निकले तो लोग समझे
वो ख़्वाब थे ही चम्बेलियों से सो सब ने हाकिम की कर ली बैअत
फिर इक चम्बेली की ओट में से जो साँप निकले तो लोग समझे
वो गाँव का इक ज़ईफ़ दहक़ाँ सड़क के बनने पे क्यूँ ख़फ़ा था
जब उन के बच्चे जो शहर जाकर कभी न लौटे तो लोग समझे
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jo ham pe guzre the ranj saare jo khud pe guzre to log samjhe
jab apni apni mohabbaton ke azaab jhele to log samjhe
vo jin darakhton ki chhanv men se musafiron ko utha diya tha
unhin darakhton pe agle mausam jo phal na utre to log samjhe
us ek kachchi si umr vaali ke falsafe ko koi na samjha
jab us ke kamre se laash nikli khutut nikle to log samjhe
vo khvab the hi chambeliyon se so sab ne hakim ki kar li baiat
phir ik chambeli ki ot men se jo saanp nikle to log samjhe
vo gaanv ka ik zaiif dahqan sadak ke banne pe kyuun khafa tha
jab un ke bachche jo shahr jakar kabhi na laute to log samjhe