sahir lukhianvi

tum apna ranj-o-ghum apni pareshaani mujhe de do..

तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो 

ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूँ इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो

मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो 

वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो

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tum apanaa ra.nj-o-Gam, apani pareshaan mujhe de do 
tumhe.n gham kii qasam, is dil kI virAni mujhe de do

ye maanaa mai.n kisii qaabil nahii.n huu.N in nigaaho.n me.n
buraa kyaa hai agar, ye dukh ye hairaani mujhe de do

mai.n dekhuu.n to sahii, duniyaa tumhe.n kaise sataati hai 
koi din ke liye, apni nigahabaani mujhe de do

vo dil jo maine maa.ngaa thaa magar gairo.n ne paayaa
ba.Dk shai hai agar, usaki pashemaani mujhe de do
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Tajmahal - Sahir Ludhianavi..

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मअ'नी

सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मअनी

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता

मुर्दा-शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता

अन-गिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के

लेकिन उन के लिए तश्हीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़्लिस थे

ये इमारात ओ मक़ाबिर ये फ़सीलें ये हिसार
मुतलक़-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूँ

सीना-ए-दहर के नासूर हैं कोहना नासूर
जज़्ब है उन में तिरे और मिरे अज्दाद का ख़ूँ

मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिन की सन्नाई ने बख़्शी है उसे शक्ल-ए-जमील

उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नुमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़िंदील

ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
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raat sunsan thi bojhal thin faza ki sansen-Teri Awaaz..

रात सुनसान थी बोझल थीं फ़ज़ा की साँसें
रूह पर छाए थे बे-नाम ग़मों के साए
दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने
मेरी कोशिश थी कि कम्बख़्त को नींद आ जाए

देर तक आँखों में चुभती रही तारों की चमक
देर तक ज़ेहन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुर्सिश के लिए
तो न आई मगर उस रात की पहनाई में

यूँ अचानक तिरी आवाज़ कहीं से आई
जैसे पर्बत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों की मोहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे

शहद सा घुल गया तल्ख़ाबा-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियह-ख़ाने में
देर तक यूँ तिरी मस्ताना सदाएँ गूँजीं
जिस तरह फूल चटकने लगें वीराने में

तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है
और नग़्मों में छुपा कर मिरे खोए हुए ख़्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है

रात की सतह पर उभरे तिरे चेहरे के नुक़ूश
वही चुप-चाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर

तू मिरे पास न थी फिर भी सहर होने तक
तेरा हर साँस मिरे जिस्म को छू कर गुज़रा
क़तरा क़तरा तिरे दीदार की शबनम टपकी
लम्हा लम्हा तिरी ख़ुश्बू से मोअत्तर गुज़रा

अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-क़रार
मैं तिरी राह न देखूँगा सियह रातों में
ढूँढ लेंगी मिरी तरसी हुई नज़रें तुझ को
नग़्मा ओ शेर की उमडी हुई बरसातों में

अब तिरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती
तिरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जाएगी
और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है
गीत बन कर तिरे होंटों पे मचल जाएगी

तेरे नग़्मात तिरे हुस्न की ठंडक ले कर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जाएँगे
चंद घड़ियों के लिए हूँ कि हमेशा के लिए
मिरी जागी हुई रातों को सुला जाएँगे

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raat sunsan thi bojhal thin faza ki sansen
ruh par chhae the be-nam ghamon ke sae
dil ko ye zid thi ki tu aae tasalli dene
meri koshish thi ki kambakht ko nind aa jae

der tak aaankhon mein chubhti rahi taron ki chamak
der tak zehn sulagta raha tanhai mein
apne thukrae hue dost ki pursish ke liye
to na aai magar us raat ki pahnai mein

yun achanak teri aawaz kahin se aai
jaise parbat ka jigar chir ke jharna phute
ya zaminon ki mohabbat mein tadap kar nagah
aasmanon se koi shokh sitara tute

shahad sa ghul gaya talkhaba-e-tanhai mein
rang sa phail gaya dil ke siyah-khane mein
der tak yun teri mastana sadaen gaunjin
jis tarah phul chatakne lagen virane mein

tu bahut dur kisi anjuman-e-naz mein thi
phir bhi mahsus kiya main ne ki tu aai hai
aur naghmon mein chhupa kar mere khoe hue khwab
meri ruthi hui nindon ko mana lai hai

raat ki sath par ubhre tere chehre ke nuqush
wahi chup-chap si aanhken wahi sada si nazar
wahi dhalka hua aanchal wahi raftar ka kham
wahi rah rah ke lachakta hua nazuk paikar

tu mere pas na thi phir bhi sahar hone tak
tera har sans mere jism ko chhu kar guzra
qatra qatra tere didar ki shabnam tapki
lamha lamha teri khushbu se moattar guzra

ab yahi hai tujhe manzur to ai jaan-e-qarar
main teri rah na dekhunga siyah raaton mein
dhundh lengi meri tarsi hui nazren tujh ko
naghma o sher ki umdi hui barsaton mein

ab tera pyar sataega to meri hasti
teri masti bhari aawaz mein dhal jaegi
aur ye ruh jo tere liye bechain si hai
git ban kar tere honton pe machal jaegi

tere naghmat tere husn ki thandak le kar
mere tapte hue mahaul mein aa jaenge
chand ghadiyon ke liye hun ki hamesha ke liye
meri jagi hui raaton ko sula jaenge
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ye mahalo ye takto ye tajo ki duniya..

ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया 
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया 
ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया 
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया 
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 

हर एक जिस्म घायल हर एक रूह प्यासी 
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी 
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

जहाँ एक खिलौना है इन्सां की हस्ती 
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती 
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

जवानी भटकती है बदकार बन कर 
जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर 
जहाँ प्यार होता है व्यौपार बन कर 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है,
वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है 
ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है,
वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है 
जहाँ प्यार की क़द्र ही कुछ नहीं है 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है


जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया 
जला दो जला दो 
जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया 
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया 
तुम्हारी है तुम ही सम्भालो ये दुनिया 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 

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ye mahalo, ye takto, ye tajo ki duniya
ye inasa ke dushman samajo ki duniya
ye mahalo, ye takto, ye tajo ki duniya
ye inasa ke dushman samaajo ki duniya
ye daulat ke bhukhe rivaazo ki duniya
ye duniya agar mil bhi jaaye to kya hai
ye duniya agar mil bhi jaaye to kya hai
har ek jism ghaayal, har ek ruh pyaasi
nigaaho me ulajhan, dilo mein udaasi
ye duniya hai yaa aalam-e-badahavaasi
ye duniya agar mil bhi jaye to lya hai

jahaa ek khilaunaa hai inasaa ki hasti
ye basti hai murdaa-parasto ki basti
jahaa aur jivan se hai maut sasti
ye duniya agar mil bhi jaye to kya hai
jawani bhatkati hai bejaar banakar
jawa jism sajte hai bajar banakar
jaha pyar hota hai vyapar banakar
ye duniya agar mil bhi jaye to lya hai

ye duniya jaha aadami kuch nahi hai
wafa kuch nahi, dosti kuch nahi hai
ye duniya jaha aadami kuch nahi hai
wafa kuch nahi, dosti kuch nahi hai
jaha pyar ki kadar hi kuch nahi hai
ye duniya agar mil bhi jaye to kya hai
jala do, jala do ise funk dalo ye duniya
mere samne se hata lo ye duniya
tumhari hai tum hi sambhalo ye duniya
ye duniya agar mil bhi jaye to lya hai
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chalo ik baar phir se, ajanabii ban jaae.n ham dono..

चलो इक बार फिर से, अजनबी बन जाएं हम दोनो
चलो इक बार फिर से 

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्म-कश का राज़ नज़रों से
चलो इक बार फिर से 

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराए हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माझी की - २
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साये हैं
चलो इक बार फिर से 

तार्रुफ़ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन - २
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो इक बार फिर से 

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chalo ik baar phir se, ajanabii ban jaae.n ham dono
chalo ik baar phir se 

na mai.n tumase koI ummiid rakhuu.N dilanavaazii kii
na tum merii taraf dekho galat a.ndaaz nazaro.n se
na mere dil kii dha.Dakan la.Dakha.Daaye merii baato.n se
na zaahir ho tumhaarii kashm-kash kaa raaz nazaro.n se
chalo ik baar phir se 

tumhe.n bhii koI ulajhan rokatii hai peshakadamii se
mujhe bhii log kahate hai.n ki ye jalave paraae hai.n
mere hamaraah bhii rusavaaiyaa.n hai.n mere maajhii kii 
tumhaare saath bhii guzarii huii raato.n ke saaye hai.n
chalo ik baar phir se 

taarruf rog ho jaaye to usako bhuulanaa behatar
taalluk bojh ban jaaye to usako to.Danaa achchhaa
vo afasaanaa jise a.njaam tak laanaa naa ho mumakin 
use ek khuubasuurat mo.D dekar chho.Danaa achchhaa
chalo ik baar phir se 
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Khud-kushi se pahle - Sahir Ludhianvi..

उफ़ ये बेदर्द सियाही ये हवा के झोंके
किस को मालूम है इस शब की सहर हो कि न हो
इक नज़र तेरे दरीचे की तरफ़ देख तो लूँ
डूबती आँखों में फिर ताब-ए-नज़र हो कि न हो

अभी रौशन हैं तिरे गर्म शबिस्ताँ के दिए 
नील-गूँ पर्दों से छनती हैं शुआएँ अब तक
अजनबी बाँहों के हल्क़े में लचकती होंगी 
तेरे महके हुए बालों की रिदाएँ अब तक 

सर्द होती हुई बत्ती के धुएँ के हमराह 
हाथ फैलाए बढ़े आते हैं ओझल साए 
कौन पोंछे मिरी आँखों के सुलगते आँसू 
कौन उलझे हुए बालों की गिरह सुलझाए 

आह ये ग़ार-ए-हलाकत ये दिए का महबस 
उम्र अपनी इन्ही तारीक मकानों में कटी 
ज़िंदगी फ़ितरत-ए-बे-हिस की पुरानी तक़्सीर 
इक हक़ीक़त थी मगर चंद फ़सानों में कटी 

कितनी आसाइशें हँसती रहीं ऐवानों में 
कितने दर मेरी जवानी पे सदा बंद रहे 
कितने हाथों ने बुना अतलस-ओ-कमख़्वाब मगर 
मेरे मल्बूस की तक़दीर में पैवंद रहे 

ज़ुल्म सहते हुए इंसानों के इस मक़्तल में 
कोई फ़र्दा के तसव्वुर से कहाँ तक बहले 
उम्र भर रेंगते रहने की सज़ा है जीना 
एक दो दिन की अज़िय्यत हो तो कोई सह ले 

वही ज़ुल्मत है फ़ज़ाओं पे अभी तक तारी 
जाने कब ख़त्म हो इंसाँ के लहू की तक़्तीर 
जाने कब निखरे सियह-पोश फ़ज़ा का जौबन 
जाने कब जागे सितम-ख़ुर्दा बशर की तक़दीर 

अभी रौशन हैं तिरे गर्म शबिस्ताँ के दिए 
आज मैं मौत के ग़ारों में उतर जाऊँगा 
और दम तोड़ती बत्ती के धुएँ के हमराह 
सरहद-ए-मर्ग-ए-मुसलसल से गुज़र जाऊँगा 


Uff Ye Be-Dard Siyaahi, Ye Havaa Ke Jhonke
Kis Ko Ma’loom Hai Is Shab Ki Sahar Ho Ke Na Ho
Ik Nazar Tere Dareeche Ki Taraf Dekh To Loon
Doobti Aankhon Mein Phir Taab-E-Nazar Ho Ke Na Ho

Abhi Raushan Hain Tere Garm Shabistaan Ke Diye
Neelgoon Pardon Se Chhanti Hain Shuaaein Ab Tak
Ajnabi Baahon Ke Halqe Mein Lachakti Hongi
Tere Mahke Hue Baalon Ki Ruaayein Ab Tak
Sard Hoti Hui Batti Ke Dhuein Ke Hamraah

Haath Phailaaye Badhe Aate Hain Bojhal Saaye
Kaun Ponchhe Meri Aankhon Ke Sulagte Aansoo
Kaun Uljhe Hue Baalon Ki Girah Suljhaaye
Aah Ye Ghaar Halaakat, Ye Diye Ka Mahbas
Umr Apni Inhin Taareek Makaanon Mein Kati

Zindagi Fitrat-E-Behis Ki Puraani Taqseer
Ik Haqeeqat Thi Magar Chand Fasaanon Si Kati
Kitni Aasaaishein Hansti Rahin Aivaanon Mein
Kitne Dar Meri Javaani Pe Sadaa Band Rahe
Kitne Haathon Ne Bunaa Atlas -O-Kamkhwaab Magar

Mere Malboos Ki Taqdeer Mein Paiwand Rahe
Zulm Sahte Hue Insaanon Ke Is Maqtal Mein
Koi Fardaa Ke Tasavvur Se Kahaan Tak Bahle
Umr Bhar Rengte Rahne Ki Sazaa Hai Jeenaa
Ek Do Din Ki Azeeyat Ho To Koi Sah Le

Vahi Zulmat Hai Fazaaon Pe Abhi Tak Taari
Jaane Kab Khatm Ho Insaan Ke Lahoo Ki Taqteer
Jaane Kab Bikhre Siya-Posh Fazaa Kaa Joban
Jaane Kab Jaage Sitam-Khurdah Bashar Ki Taqdeer

Abhi Raushan Hain Tere Garm Shabistaan Ke Diye
Aaj Main Maut Ke Ghaaron Mein Utar Jaaoon Ga
Aur Dam Todti Batti Ke Dhuein Ke Hamraah
Sarhad-E-Marg-E-Musalsal Se Guzar Jaaoon Ga
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Wo subah kabhi to aaegi..

1
वो सुब्ह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
जिस सुब्ह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर कर जीते हैं
जिस सुब्ह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज़्ज़त जब झूटे सिक्कों में न तौली जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
चाहत को न कुचला जाएगा ग़ैरत को न बेचा जाएगा
अपने काले करतूतों पर जब ये दुनिया शरमाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारा-दारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा
हक़ माँगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे
सीनों के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया जब स्वर्ग बनाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 
जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे 
जब पाप घरौंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे 
उस सुब्ह को हम ही लाएँगे वो सुब्ह हमीं से आएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 
मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे 
जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे 
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 
संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे
बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी|

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1
vo sub.h kabhi to aa.egi
in kaali sadiyon ke sar se jab raat ka anchal Dhalkega
jab dukh ke badal pighlenge jab sukh ka sagar chhalkega
jab ambar jhuum ke nachega jab dharti naghme ga.egi
vo sub.h kabhi to aa.egi
jis sub.h ki khatir jug jug se ham sab mar mar kar jiite hain
jis sub.h ke amrit ki dhun men ham zahr ke pyale piite hain 
in bhuki pyasi ruhon par ik din to karam farma.egi 
vo sub.h kabhi to aa.egi
maana ki abhi tere mere armanon ki qimat kuchh bhi nahin 
miTTi ka bhi hai kuchh mol magar insanon ki qimat kuchh bhi nahin 
insanon ki izzat jab jhuTe sikkon men na tauli ja.egi
vo sub.h kabhi to aa.egi
daulat ke liye jab aurat ki ismat ko na becha ja.ega
chahat ko na kuchla ja.ega ghairat ko na becha ja.ega
apne kaale kartuton par jab ye duniya sharma.egi
vo sub.h kabhi to aa.egi
bitenge kabhi to din akhir ye bhuuk ke aur bekari ke
TuTenge kabhi to but akhir daulat ki ijara-dari ke
jab ek anokhi duniya ki buniyad uTha.i ja.egi
vo sub.h kabhi to aa.egi
majbur buDhapa jab suuni rahon ki dhuul na phankega
ma.asum laDakpan jab gandi galiyon men bhiik na mangega
haq mangne valon ko jis din suuli na dikha.i ja.egi
vo sub.h kabhi to aa.egi
faqon ki chitaon par jis din insan na jala.e ja.enge
sinon ke dahakte dozakh men arman na jala.e ja.enge
ye narak se bhi gandi duniya jab sovarg bana.i ja.egi
vo sub.h kabhi to aa.egi
2
vo sub.h hamin se aa.egi
jab dharti karvaT badlegi jab qaid se qaidi chhuTenge
jab paap gharaunde phuTenge jab zulm ke bandhan TuTenge
us sub.h ko ham hi la.enge vo sub.h hamin se aa.egi
vo sub.h hamin se aa.egi
manhus samaji Dhanchon men jab zulm na paale ja.enge
jab haath na kaaTe ja.enge jab sar na uchhale ja.enge
jailon ke bina jab duniya ki sarkar chala.i ja.egi
vo sub.h hamin se aa.egi
sansar ke saare mehnat-kash kheton se milon se niklenge
be-ghar be-dar be-bas insan tarik bilon se niklenge
duniya amn aur khush-hali ke phulon se saja.i ja.egi
vo sub.h hamin se aa.egi..
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Parchhaiyan..

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख़ाब-ए-मर्मरीं की तरह

हसीन फूल हसीं पतियाँ हसीं शाख़ें
लचक रही हैं किसी जिस्म-ए-नाज़नीं की तरह 

फ़ज़ा में घुल से गए हैं उफ़ुक़ के नर्म ख़ुतूत
ज़मीं हसीन है ख़्वाबों की सरज़मीं की तरह 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
कभी गुमान की सूरत कभी यक़ीं की तरह 

वो पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह 

उन्ही के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
ख़मोश होंटों से कुछ कहने सुनने आए हैं 

न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते जागते लम्हे चुरा के लाए हैं 

यही फ़ज़ा थी यही रुत यही ज़माना था
यहीं से हम ने मोहब्बत की इब्तिदा की थी 

धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुज़ूर-ए-ग़ैब में नन्ही सी इल्तिजा की थी

कि आरज़ू के कँवल खिल के फूल हो जाएँ
दिल-ओ-नज़र की दुआएँ क़ुबूल हो जाएँ 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बच कर 

नज़र झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेंपती डरती 

ख़ुद अपने साए की जुम्बिश से ख़ौफ़ खाए हुए
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

रवाँ है छोटी सी कश्ती हवाओं के रुख़ पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है 

तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मिरी खुली हुई बाहोँ में झूल जाता है 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जोड़े में 

तुम्हारी आँख मसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ 

ज़बान ख़ुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

मिरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होंटों पे मेरे लबों के साए हैं 

मुझे यक़ीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान कि हम मिल के भी पराए हैं 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

मिरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को
अदा-ए-इज्ज़-ओ-करम से उठा रही हो तुम 

सुहाग-रात जो ढोलक पे गाए जाते हैं
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

वो लम्हे कितने दिलकश थे वो घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं
वो सेहरे कितने नाज़ुक थे वो लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं 

बस्ती की हर इक शादाब गली ख़्वाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौज-ए-नफ़स हर मौज-ए-सबा नग़्मों का ज़ख़ीरा थी गोया 

नागाह लहकते खेतों से टापों की सदाएँ आने लगीं
बारूद की बोझल बू ले कर पच्छिम से हवाएँ आने लगीं 

ता'मीर के रौशन चेहरे पर तख़रीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी हर शहर में जंगल फैल गया 

मग़रिब के मोहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ ख़ाकी-वर्दी-पोश आए
इठलाते हुए मग़रूर आए लहराते हुए मदहोश आए 

ख़ामोश ज़मीं के सीने में ख़ेमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन सी मुलाएम राहों पर बूटों की ख़राशें पड़ने लगीं
फ़ौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदाएँ डूब गईं 


जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बाएँ डूब गईं
इंसान की क़िस्मत गिरने लगी अजनास के भाव चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक़ घुटने लगी भरती के दफ़ातिर बढ़ने लगे 


बस्ती के सजीले शोख़ जवाँ बन बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

उन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई बरनाई भी
माओं के जवाँ बेटे भी गए बहनों के चहेते भाई भी 

बस्ती पे उदासी छाने लगी मेलों की बहारें ख़त्म हुईं
आमों की लचकती शाख़ों से झूलों की क़तारें ख़त्म हुईं 

धूल उड़ने लगी बाज़ारों में भूक उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठ कर रू-पोश हुई तह-ख़ानों में 

बद-हाल घरों की बद-हाली बढ़ते बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़ कर काल बनी सारी बस्ती कंगाल बनी 

चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कुँवारी अबलाएँ माँ बाप की चौखट छोड़ गईं 

अफ़्लास-ज़दा दहक़ानों के हल बैल बिके खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों जीने के सब सामान बिके 

कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़ल्वत में भी जो ममनूअ' थी वो जल्वत में जसारत होने लगी 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

तुम आ रही हो सर-ए-शाम बाल बिखराए
हज़ार-गूना मलामत का बार उठाए हुए 

हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उर्यानियाँ छुपाए हुए 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 
मैं शहर जा के हर इक दर पे झाँक आया हूँ 

किसी जगह मिरी मेहनत का मोल मिल न सका 
सितमगरों के सियासी क़िमार-ख़ाने में 

अलम-नसीब फ़रासत का मोल मिल न सका 
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बरपा है 
महाज़-ए-जंग से हरकारा तार लाया है 

कि जिस का ज़िक्र तुम्हें ज़िंदगी से प्यारा था 
वो भाई नर्ग़ा-ए-दुश्मन में काम आया है 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

हर एक गाम पे बद-नामियों का जमघट है 
हर एक मोड़ पे रुस्वाइयों के मेले हैं 
न दोस्ती न तकल्लुफ़ न दिलबरी न ख़ुलूस 
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

वो रहगुज़र जो मिरे दिल की तरह सूनी है 
न जाने तुम को कहाँ ले के जाने वाली है 
तुम्हें ख़रीद रहे हैं ज़मीर के क़ातिल 
उफ़ुक़ पे ख़ून-ए-तमन्ना-ए-दिल की लाली है 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे 
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे 


उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनिया में 
सहमी हुई दो-शीज़ाओं की मुस्कान भी बेची जाती है 
उस शाम मुझे मालूम हुआ इस कार-गह-ए-ज़र्दारी में 
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है 
उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाए 
ममता के सुनहरे ख़्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है 
उस शाम मुझे मालूम हुआ जब भाई जंग में काम आएँ 
सरमाए के क़हबा-ख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है 

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे 
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

तुम आज हज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तन्हाई में 
या बज़्म-ए-तरब-आराई में 
मेरे सपने बुनती होंगी बैठी आग़ोश पराई में 
और मैं सीने में ग़म ले कर दिन-रात मशक़्क़त करता हूँ 
जीने की ख़ातिर मरता हूँ 
अपने फ़न को रुस्वा कर के अग़्यार का दामन भरता हूँ 
मजबूर हूँ मैं मजबूर हो तुम मजबूर ये दुनिया सारी है 
तन का दुख मन पर भारी है 
इस दौर में जीने की क़ीमत या दार-ओ-रसन या ख़्वारी है 
मैं दार-ओ-रसन तक जा न सका तुम जेहद की हद तक आ न सकीं 
चाहा तो मगर अपना न सकीं 
हम तो दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िल-ए-तस्कीं पा न सकें 
जीने को जिए जाते हैं मगर साँसों में चिताएँ जलती हैं 
ख़ामोश वफ़ाएँ जलती हैं 
संगीन हक़ाइक़-ज़ारों में ख़्वाबों की रिदाएँ जलती हैं 
और आज जब इन पेड़ों के तले फिर दो साए लहराए हैं 
फिर दो दिल मिलने आए हैं 
फिर मौत की आँधी उट्ठी है फिर जंग के बादल छाए हैं 
मैं सोच रहा हूँ इन का भी अपनी ही तरह अंजाम न हो 
इन का भी जुनूँ नाकाम न हो 
इन के भी मुक़द्दर में लिखी इक ख़ून में लिथड़ी शाम न हो 
सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे 
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे 
हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका 
मगर उन्हें तो मुरादों की रात मिल जाए 
हमें तो कश्मकश-ए-मर्ग-ए-बे-अमाँ ही मिली 
उन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाए 

बहुत दिनों से है ये मश्ग़ला सियासत का 
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जाएँ 
बहुत दिनों से ये है ख़ब्त हुक्मरानों का 
कि दूर दूर के मुल्कों में क़हत बो जाएँ 
बहुत दिनों से जवानी के ख़्वाब वीराँ हैं 
बहुत दिनों से सितम-दीदा शाह-राहों में 
निगार-ए-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढती है 
चलो कि आज सभी पाएमाल रूहों से 
कहें कि अपने हर इक ज़ख़्म को ज़बाँ कर लें 
हमारा राज़ हमारा नहीं सभी का है 
चलो कि सारे ज़माने को राज़-दाँ कर लें 
चलो कि चल के सियासी मुक़ामिरों से कहें 
कि हम को जंग-ओ-जदल के चलन से नफ़रत है 
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आए 
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है 
कहो कि अब कोई क़ातिल अगर इधर आया 
तो हर क़दम पे ज़मीं तंग होती जाएगी 
हर एक मौज-ए-हवा रुख़ बदल के झपटेगी 
हर एक शाख़ रग-ए-संग होती जाएगी 
उठो कि आज हर इक जंग-जू से ये कह दें 
कि हम को काम की ख़ातिर कलों की हाजत है 
हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक़ नहीं 
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है 
कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख़ न करे 
अब इस जगह कोई कुँवारी न बेची जाएगी 
ये खेत जाग पड़े उठ खड़ी हुईं फ़स्लें 
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जाएगी 
ये सर-ज़मीन है गौतम की और नानक की 
इस अर्ज़-ए-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी 
हमारा ख़ून अमानत है नस्ल-ए-नौ के लिए 
हमारे ख़ून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी 
कहो कि आज भी हम सब अगर ख़मोश रहे 
तो इस दमकते हुए ख़ाक-दाँ की ख़ैर नहीं 
जुनूँ की ढाली हुई एटमी बलाओं से 
ज़मीं की ख़ैर नहीं आसमाँ की ख़ैर नहीं 
गुज़िश्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार 
अजब नहीं कि ये तन्हाइयाँ भी जल जाएँ 
गुज़िश्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार 
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जाएँ 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 
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Faraar....

apne maazi ke tasavvur se hiraasaan houn main
apne guzre hue ayyaam se nafrat hai mujhe

apni bekar tamannaaon pe sharminda houn
apni besood umeedon pe nadaamat hai mujhe

mere maazi ko andhere mein dabaa rahne do
mera maazi meri zillat ke sivaa kuchh bhi nahin

meri umeedon kaa haasil, meri kaavish ka silaa
ek benaam azeeyat ke sivaa kuchh bhi nahin

kitni bekaar umeedon ka sahaaraa lekar
maine aivaan sajaaye the kisi ki Khaatir

kitni berabt tamannaaon ke mubham Khaake
apne Khwaabon mein basaaye the kisi ki Khaatir

mujhse ab meri muhabbat ke fasaane na kaho
mujhko kahne do k main ne unhein chaahaa hi nahin

aur vo mast nigaahein jo mujhe bhool gayin
main ne un mast nigaahon ko saraahaa hi nahin

mujhko kahne do k main aaj bhi jee saktaa houn
ishaq nakaam sahi, zindagi nakaam nahin

unhein apnaane ki khwaaish, unhein paane ki talab
shauq-e-bekaar sahi, sa’i-e-Gham-anjaam nahin

vahi gesoo, vahi nazrein, vahi aariz, vahi jism
main jo chaahoun to mujhe aur bhi mil sakte hain

vo kanval jinko kabhi unke liye khilna thaa
unki nazron se bahut door bhi khil sakte hain

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अपने माज़ी के तसव्वुर से हिरासाँ हूँ मैं 
अपने गुज़रे हुए अय्याम से नफ़रत है मुझे 
अपनी बे-कार तमन्नाओं पे शर्मिंदा हूँ 
अपनी बे-सूद उमीदों पे नदामत है मुझे 

मेरे माज़ी को अंधेरे में दबा रहने दो 
मेरा माज़ी मिरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं 
मेरी उम्मीदों का हासिल मिरी काविश का सिला 
एक बे-नाम अज़िय्यत के सिवा कुछ भी नहीं 

कितनी बे-कार उमीदों का सहारा ले कर 
मैं ने ऐवान सजाए थे किसी की ख़ातिर 
कितनी बे-रब्त तमन्नाओं के मुबहम ख़ाके 
अपने ख़्वाबों में बसाए थे किसी की ख़ातिर 

मुझ से अब मेरी मोहब्बत के फ़साने न कहो 
मुझ को कहने दो कि मैं ने उन्हें चाहा ही नहीं 
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गईं 
मैं ने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं 

मुझ को कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ 
इश्क़ नाकाम सही ज़िंदगी नाकाम नहीं 
इन को अपनाने की ख़्वाहिश उन्हें पाने की तलब 
शौक़-ए-बेकार सही सई-ए-ग़म-ए-अंजाम नहीं 

वही गेसू वही नज़रें वही आरिज़ वही जिस्म 
मैं जो चाहूँ तो मुझे और भी मिल सकते हैं 
वो कँवल जिन को कभी उन के लिए खिलना था 
उन की नज़रों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं 
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