तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें
कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा
कितने आँसू तिरे सहराओं को गुलज़ार करें
तेरे ऐवानों में पुर्ज़े हुए पैमाँ कितने
कितने वादे जो न आसूदा-ए-इक़रार हुए
कितनी आँखों को नज़र खा गई बद-ख़्वाहों की
ख़्वाब कितने तिरी शह-राहों में संगसार हुए
बला-कशान-ए-मोहब्बत पे जो हुआ सो हुआ
जो मुझ पे गुज़री मत उस से कहो, हुआ सो हुआ
मबादा हो कोई ज़ालिम तिरा गरेबाँ-गीर
लहू के दाग़ तू दामन से धो, हुआ सो हुआ
हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं मगर ऐ जान-ए-जहाँ
अपने उश्शाक़ से ऐसे भी कोई करता है
तेरी महफ़िल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ाएम
हम तो मेहमाँ हैं घड़ी भर के हमारा क्या है
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tujh ko kitnon ka lahu chahiye ai arz-e-vatan
jo tire ariz-e-be-rang ko gulnar karen
kitni aahon se kaleja tira ThanDa hoga
kitne aansu tire sahraon ko gulzar karen
tere aivanon men purze hue paiman kitne
kitne va.ade jo na asuda-e-iqrar hue
kitni ankhon ko nazar kha ga.i bad-khvahon ki
khvab kitne tiri shah-rahon men sangsar hue
bala-kashan-e-mohabbat pe jo hua so hua
jo mujh pe guzri mat us se kaho, hua so hua
mabada ho koi zalim tira gareban-gir
lahu ke daagh tu daman se dho, hua so hua
ham to majbur-e-vafa hain magar ai jan-e-jahan
apne ushshaq se aise bhi koi karta hai
teri mahfil ko khuda rakkhe abad tak qaa.em
ham to mehman hain ghaDi bhar ke hamara kya hai