progessive writers movement

tujh ko kitnon ka lahu chahiye ai arz-e-watan..

तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें
कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा
कितने आँसू तिरे सहराओं को गुलज़ार करें

तेरे ऐवानों में पुर्ज़े हुए पैमाँ कितने
कितने वादे जो न आसूदा-ए-इक़रार हुए
कितनी आँखों को नज़र खा गई बद-ख़्वाहों की
ख़्वाब कितने तिरी शह-राहों में संगसार हुए

बला-कशान-ए-मोहब्बत पे जो हुआ सो हुआ 
जो मुझ पे गुज़री मत उस से कहो, हुआ सो हुआ 
मबादा हो कोई ज़ालिम तिरा गरेबाँ-गीर 
लहू के दाग़ तू दामन से धो, हुआ सो हुआ

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं मगर ऐ जान-ए-जहाँ 
अपने उश्शाक़ से ऐसे भी कोई करता है 
तेरी महफ़िल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ाएम 
हम तो मेहमाँ हैं घड़ी भर के हमारा क्या है 

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tujh ko kitnon ka lahu chahiye ai arz-e-vatan
jo tire ariz-e-be-rang ko gulnar karen 
kitni aahon se kaleja tira ThanDa hoga 
kitne aansu tire sahraon ko gulzar karen 

tere aivanon men purze hue paiman kitne 
kitne va.ade jo na asuda-e-iqrar hue 
kitni ankhon ko nazar kha ga.i bad-khvahon ki 
khvab kitne tiri shah-rahon men sangsar hue 

bala-kashan-e-mohabbat pe jo hua so hua 
jo mujh pe guzri mat us se kaho, hua so hua 
mabada ho koi zalim tira gareban-gir 
lahu ke daagh tu daman se dho, hua so hua

ham to majbur-e-vafa hain magar ai jan-e-jahan 
apne ushshaq se aise bhi koi karta hai 
teri mahfil ko khuda rakkhe abad tak qaa.em 
ham to mehman hain ghaDi bhar ke hamara kya hai
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Mere hamdam mere dost - Faiz..

गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मिरे दोस्त
गर मुझे इस का यक़ीं हो कि तिरे दिल की थकन
तिरी आँखों की उदासी तेरे सीने की जलन
तेरी दिल-जूई मिरे प्यार से मिट जाएगी
गर मिरा हर्फ़-ए-तसल्ली वो दवा हो जिस से
जी उठे फिर तिरा उजड़ा हुआ बे-नूर दिमाग़

तेरी पेशानी से ढल जाएँ ये तज़लील* के दाग़
तेरी बीमार जवानी को शिफ़ा हो जाए
गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मरे दोस्त
रोज़ ओ शब शाम ओ सहर मैं तुझे बहलाता रहूँ
मैं तुझे गीत सुनाता रहूँ हल्के शीरीं
आबशारों के बहारों के चमन-ज़ारों के गीत
आमद-ए-सुब्ह के, महताब के, सय्यारों के गीत

तुझ से मैं हुस्न-ओ-मोहब्बत की हिकायात कहूँ
कैसे मग़रूर हसीनाओं के बरफ़ाब* से जिस्म
गर्म हाथों की हरारत में पिघल जाते हैं
कैसे इक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नुक़ूश
देखते देखते यक-लख़्त बदल जाते हैं
किस तरह आरिज़-ए-महबूब का शफ़्फ़ाफ़ बिलोर

यक-ब-यक बादा-ए-अहमर से दहक जाता है
कैसे गुलचीं के लिए झुकती है ख़ुद शाख़-ए-गुलाब
किस तरह रात का ऐवान महक जाता है
यूँही गाता रहूँ गाता रहूँ तेरी ख़ातिर
गीत बुनता रहूँ बैठा रहूँ तेरी ख़ातिर
पर मिरे गीत तिरे दुख का मुदावा ही नहीं
नग़्मा जर्राह नहीं मूनिस-ओ-ग़म ख़्वार सही
गीत नश्तर तो नहीं मरहम-ए-आज़ार सही
तेरे आज़ार का चारा नहीं नश्तर के सिवा
और ये सफ़्फ़ाक मसीहा मिरे क़ब्ज़े में नहीं
इस जहाँ के किसी ज़ी-रूह के क़ब्ज़े में नहीं
हाँ मगर तेरे सिवा तेरे सिवा तेरे सिवा.

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gar mujhe is ka yaqin ho mere hamdam mere dost
gar mujhe is ka yaqin ho ki tere dil ki thakan
teri aankhon ki udasi tere sine ki jalan
meri dil-jui mere pyar se miT jaegi
gar mera harf-e-tasalli wo dawa ho jis se
ji uThe phir tera ujDa hua be-nur dimagh

teri peshani se Dhal jaen ye tazlil ke dagh
teri bimar jawani ko shifa ho jae
gar mujhe is ka yaqin ho mere hamdam mare dost
roz o shab sham o sahar main tujhe bahlata rahun
main tujhe git sunata rahun halke shirin
aabshaaron ke bahaaron ke chaman-zaron ke git
aamad-e-subh ke, mahtab ke, sayyaron ke git
tujh se main husn-o-mohabbat ki hikayat kahun
kaise maghrur hasinaon ke barfab se jism
garm hathon ki hararat mein pighal jate hain
kaise ek chehre ke Thahre hue manus nuqush
dekhte dekhte yak-laKHt badal jate hain
kis tarah aariz-e-mahbub ka shaffaf bilor

yak-ba-yak baada-e-ahmar se dahak jata hai
kaise gulchin ke liye jhukti hai KHud shaKH-e-gulab
kis tarah raat ka aiwan mahak jata hai
yunhi gata rahun gata rahun teri KHatir
geet bunta rahun baiTha rahun teri KHatir
par mere git tere dukh ka mudawa hi nahin
naghma jarrah nahin munis-o-gham KHwar sahi
geet nashtar to nahin marham-e-azar sahi
tere aazar ka chaara nahin nashtar ke siwa
aur ye saffak masiha mere qabze mein nahin
is jahan ke kisi zi-ruh ke qabze mein nahin
han magar tere siwa tere siwa tere siwa
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ham dekhenge lazim hai hum bhi dekhenge ..

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है 
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है 
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ 
रूई की तरह उड़ जाएँगे 
हम महकूमों के पाँव-तले 
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी 
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर 
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी 
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से 
सब बुत उठवाए जाएँगे 
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम 
मसनद पे बिठाए जाएँगे 
सब ताज उछाले जाएँगे 
सब तख़्त गिराए जाएँगे 
बस नाम रहेगा अल्लाह का 
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी 
जो मंज़र भी है नाज़िर भी 
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे...

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ham dekhenge
lazim hai ki ham bhi dekhenge
vo din ki jis ka va.ada hai
jo lauh-e-azal men likhkha hai
jab zulm-o-sitam ke koh-e-giran
ruui ki tarah uD ja.enge
ham mahkumon ke panv-tale
jab dharti dhaD-dhaD dhaDkegi
aur ahl-e-hakam ke sar-upar
jab bijli kaD-kaD kaDkegi
jab arz-e-khuda ke ka.abe se
sab but uThva.e ja.enge
ham ahl-e-safa mardud-e-haram
masnad pe biTha.e ja.enge
sab taaj uchhale ja.enge
sab takht gira.e ja.enge
bas naam rahega allah ka
jo gha.eb bhi hai hazir bhi
jo manzar bhi hai nazir bhi
uTThega anal-haq ka na.ara
jo main bhi huun aur tum bhi ho
aur raaj karegi khalq-e-khuda
jo main bhi huun aur tum bhi ho
hum dekhenge..
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gar mujhe iska yakeen ho, mere hamdam mere dost ..

गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मिरे दोस्त
गर मुझे इस का यक़ीं हो कि तिरे दिल की थकन
तिरी आँखों की उदासी तेरे सीने की जलन
तेरी दिल-जूई मिरे प्यार से मिट जाएगी
गर मिरा हर्फ़-ए-तसल्ली वो दवा हो जिस से
जी उठे फिर तिरा उजड़ा हुआ बे-नूर दिमाग़

तेरी पेशानी से ढल जाएँ ये तज़लील के दाग़
तेरी बीमार जवानी को शिफ़ा हो जाए
गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मरे दोस्त
रोज़ ओ शब शाम ओ सहर मैं तुझे बहलाता रहूँ
मैं तुझे गीत सुनाता रहूँ हल्के शीरीं
आबशारों के बहारों के चमन-ज़ारों के गीत
आमद-ए-सुब्ह के, महताब के, सय्यारों के गीत

तुझ से मैं हुस्न-ओ-मोहब्बत की हिकायात कहूँ
कैसे मग़रूर हसीनाओं के बरफ़ाब से जिस्म
गर्म हाथों की हरारत में पिघल जाते हैं
कैसे इक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नुक़ूश
देखते देखते यक-लख़्त बदल जाते हैं
किस तरह आरिज़-ए-महबूब का शफ़्फ़ाफ़ बिलोर

यक-ब-यक बादा-ए-अहमर से दहक जाता है
कैसे गुलचीं के लिए झुकती है ख़ुद शाख़-ए-गुलाब
किस तरह रात का ऐवान महक जाता है
यूँही गाता रहूँ गाता रहूँ तेरी ख़ातिर
गीत बुनता रहूँ बैठा रहूँ तेरी ख़ातिर
पर मिरे गीत तिरे दुख का मुदावा ही नहीं
नग़्मा जर्राह नहीं मूनिस-ओ-ग़म ख़्वार सही
गीत नश्तर तो नहीं मरहम-ए-आज़ार सही
तेरे आज़ार का चारा नहीं नश्तर के सिवा
और ये सफ़्फ़ाक मसीहा मिरे क़ब्ज़े में नहीं
इस जहाँ के किसी ज़ी-रूह के क़ब्ज़े में नहीं
हाँ मगर तेरे सिवा तेरे सिवा तेरे सिवा
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aaj bazar men pa-ba-jaulan chalo..

आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो

चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो
खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो

हाकिम-ए-शहर भी, मजम-ए-आम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी
सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानां मे अब बा-सफा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन है
रख्त-ए-दिल बांध लो दिलफिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो

आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो


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aaj bazar men pa-ba-jaulan chalo

chashm-e-nam jan-e-shorida kaafi nahin 
tohmat-e-ishq-e-poshida kaafi nahin 
aaj bazar men pa-ba-jaulan chalo 
dast-afshan chalo mast o raqsan chalo 
khak-bar-sar chalo khun-ba-daman chalo 
raah takta hai sab shahr-e-janan chalo 

hakim-e-shahr bhi majma-e-am bhi 
tir-e-ilzam bhi sang-e-dushnam bhi 
sub.h-e-nashad bhi roz-e-nakam bhi 
un ka dam-saz apne siva kaun hai 
shahr-e-janan men ab ba-safa kaun hai 
dast-e-qatil ke shayan raha kaun hai 
rakht-e-dil bandh lo dil-figaro chalo 
phir hamin qatl ho aa.en yaaro chalo

aaj bazar men pa-ba-jaulan chalo 
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kuch ishq kiya kuch kaam kiya..

वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे 
जो इश्क़ को काम समझते थे 
या काम से आशिक़ी करते थे 
हम जीते-जी मसरूफ़ रहे 
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया 
काम इश्क़ के आड़े आता रहा 
और इश्क़ से काम उलझता रहा 
फिर आख़िर तंग आ कर हम ने 
दोनों को अधूरा छोड़ दिया 

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Woh log bahut khush kismat the
Jo ishq ko kaam samajhte the
Yaa kaam se aashiqui karte the
Hum jiite ji masruuf rahe
Kuchh ishq kiya, kuchh kaam kiya
Kaam ishq ke aaDe aata raha
Aur ishq se kaam ulajhta raha
Phir aakhir tang aakar hum ne
Donon ko adhuuraa chhoD diya
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Phir koi aayaa dil-e-zaar Nahin koi nahin..

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं
राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिए क़दमों के सुराग़
गुल करो शमएँ बढ़ा दो मय ओ मीना ओ अयाग़
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं कोई नहीं आएगा

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Phir koi aayaa, dil-e-zaar! Nahin, koi nahin
Rah’ro hoga, kahin aur chalaa jaayegaa
Dhal chuki raat, bikharne lagaa taaron ka ghubaar
Ladkhadaane lage aiwaanon mein khwabda chiraag
So gayee raastaa tak tak ke har ik rahguzaar
Ajnabi khaak ne dhundlaa diye qadmon ke suraagh
Gul karo shammein! Badhaa do mai-o-meena-o-ayaagh
Apne bekhwaab kiwaadon ko muqaffal kar lo
Ab yahaan koi nahin, koi nahin aayega

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chand roz aur miri jaan..


चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम 
और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम 

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं 
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में 
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं

लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं 
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं

अरसा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में 
हम को रहना है पे यूँही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे-नाम गिराँ-बार सितम 
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है

ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द 
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द 

दिल की बे-सूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़.

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chand roz aur miri jaan faqat chand hi roz
zulm ki chhanv men dam lene pe majbur hain ham
aur kuchh der sitam sah len taDap len ro len 
apne ajdad ki miras hai mazur hain ham 


jism par qaid hai jazbat pe zanjiren hain 
fikr mahbus hai guftar pe taziren hain 
apni himmat hai ki ham phir bhi jiye jaate hain 
zindagi kya kisi muflis ki qaba hai jis men 
har ghaDi dard ke paivand lage jaate hain

lekin ab zulm ki mi.ad ke din thoDe hain 
ik zara sabr ki fariyad ke din thoDe hain

arsa-e-dahr ki jhulsi hui virani men 
ham ko rahna hai pe yunhi to nahin rahna hai 
ajnabi hathon ka be-nam giran-bar sitam 
aaj sahna hai hamesha to nahin sahna hai 

ye tire husn se lipTi hui alam ki gard 
apni do roza javani ki shikaston ka shumar 
chandni raton ka bekar dahakta hua dard 

dil ki be-sud taDap jism ki mayus pukar 
chand roz aur miri jaan faqat chand hi roz
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Mujh se pahli si mohabbat..

Mujh se pahli si mohabbat mere mahboob na maang
Main ne samjha tha ki tu hai to daraḳhshan hai hayat

Tera gham hai to gham-e-dahr ka jhagda kya hai
Teri surat se hai aalam mein baharon ko sabat
Teri ankhon ke siva duniya mein rakkha kya hai

Tu jo mil jaa.e to taqdir nigun ho jaaye
Yuun na tha maia ne faqat chaha tha yuua ho jaaye

Aur bhi dukh hain zamane mein mohabbat ke siva
Rahatein aur bhi hain vasl ki rahat ke siva

An-ginat sadiyon ke tarik bahimana tilism
Resham-o-atlas-o-kamḳhab mein bunvaye hue
Ja-ba-ja bikte hue kucha-o-bazar mein jism
Khaak mein luthde hue ḳhoon mein nahlae hue
Jism nikle hue amraaz ke tannooron se
Piip bahti hui galte hue naasooron se

Laut jaati hai udhar ko bhi nazar kya kiije
Ab bhi dilkash hai tera husn magar kya kiije

Aur bhi dukh hain zamane mein mohabbat ke siva
Rahatein aur bhi hain vasl ki raahat ke siva
Mujh se pahli si mohabbat meri mahboob na maang

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मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात 
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है 
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है 

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए 
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए 
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म 
रेशम-ओ-अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए 
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म 
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से 
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 
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Raqeeb Se..


आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से 
जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था 
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने 
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था 

आश्ना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर 
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है 
कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के 
जिस की इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है 
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में 
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है 
तुझ पे बरसा है उसी बाम से महताब का नूर 
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है 

तू ने देखी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होंट 
ज़िंदगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हम ने 
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें 
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने 
हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़म-ए-उल्फ़त के 
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ 
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है 
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ 

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी 
यास-ओ-हिरमान के दुख-दर्द के मअ'नी सीखे 
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा 
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे 
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिन के 
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं 
ना-तवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब 
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं 

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त 
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है 
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ 
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.

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Aa ki vabasta hain us husn ki yaden tujh se 
Jis ne is dil ko pari-khana bana rakkha tha 
Jis ki ulfat men bhula rakkhi thi duniya ham ne 
Dahr ko dahr ka afsana bana rakkha tha 

Ashna hain tire qadmon se vo rahen jin par 
Us ki mad.hosh javani ne inayat ki hai 
Karvan guzre hain jin se usi ranayi ke 
Jis ki in ankhon ne be-sud ibadat ki hai 

Tujh se kheli hain vo mahbub hava.en jin men 
Us ke malbus ki afsurda mahak baaqi hai 
Tujh pe barsa hai usi baam se mahtab ka nuur 
Jis men biiti hui raton ki kasak baaqi hai 

Tu ne dekhi hai vo peshani vo ruḳhsar vo hont 
Zindagi jin ke tasavvur men luta di ham ne 
Tujh pe utthi hain vo khoi hui sahir ankhen 
Tujh ko ma.alum hai kyuun umr ganva di ham ne
 
Ham pe mushtarka hain ehsan gham-e-ulfat ke 
Itne ehsan ki ginva.un to ginva na sakun 
Ham ne is ishq men kya khoya hai kya sikha hai 
Juz tire aur ko samjha.un to samjha na sakun 

Ajizi sikhi gharibon ki himayat sikhi 
Yas-o-hirman ke dukh-dard ke ma.ani sikhe 
Zer-daston ke masa.ib ko samajhna sikha 
Sard aahon ke ruḳh-e-zard ke ma.ani sikhe 

Jab kahin baith ke rote hain vo bekas jin ke 
Ashk ankhon men bilakte hue so jaate hain 
Na-tavanon ke nivalon pe jhapatte hain uqaab 
Baazu tole hue mandlate hue aate hain 

Jab kabhi bikta hai bazar men mazdur ka gosht 
Shah-rahon pe gharibon ka lahu bahta hai 
Aag si siine men rah rah ke ubalti hai na puchh 
Apne dil par mujhe qaabu hi nahin rahta hai
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