subah rausan thi

Subahein roshan thi aur garmiyon ki..

सुब्हें रौशन थी और गर्मियों की थका देने वाले दिनों में
सारी दुनिया से आज़ाद हम मछलियों की तरह मैली नहरों में गोते लगाते
अपने चेहरों से कीचड़ लगाकर डराते थे एक दूसरे को
किनारों पर बैठे हुए हमने जो अहद एक दूसरे से लिये थे
उसके धुँधले से नक्शे आज भी मेरे दिल पर कहीं नक्श है
ख़ुदा रोज़ सूरज को तैयार करके हमारी तरफ़ भेजता था
और हम साया-ए-कुफ़्र में इक दूजे के चेहरे की ताबिंदगी की दुआ माँगते थे
उस का चेहरा कभी मेरी आँखों से ओझल नहीं हो सका
उसका चेहरा अगर मेरी आँखों से हटता तो मैं काएनातों में फैले हुए उन मज़ाहिर की तफ़्हीम नज़्मों में करता
कि जिस पर बज़िद है ये बीमार
जिन को खुद अपनी तमन्नाओं की आत्माओं ने इतना डराया
कि इनको हवस के क़फ़स में मोहब्बत की किरनों ने छूने की कोशिश भी की तो ये उस से परे हो गए
इनके बस में नहीं कि ये महसूस करते एक मोहब्बत भरे हाथ का लम्स
जिनसे इंकार कर कर के इनके बदन खुरदुरे हो गए
एक दिन जो ख़ुदा और मोहब्बत की एक क़िस्त को अगले दिन पर नहीं टाल सकते
ख़ुदा और मोहब्बत पर राए-ज़नी करते थकते नहीं
और इस पर भी ये चाहते हैं कि मैं इनकी मर्ज़ी की नज़्में कहूँ
जिन में इन की तशफ़्फी का सामान हो, आदमी पढ़ के हैरान हो
जिस को ये इल्म कहते है, उस इल्म की बात हो
फ़लसफ़ा, दीन, तारीख़, साइंस, समाज, अक़ीदा, ज़बान-ए-म‌आशी, मुसावात,
इंसान के रंग-ओ-आदात-ओ-अतवार ईजाद, तक़लीद, अम्न, इंतिशार, लेनिन की अज़मत के किस्से
फ़ितरी बलाओं से और देवताओं से जंग, सुल्ह-नामा लिए तेज़ रफ़्तार घोड़ों पर सहमे सिपाही
नज़िया-ए-समावात में कान में क्या कहा और उसकी जुराबों के फीतों की डिबिया
कीमिया के खज़ानों का मुँह खोलने वाला बाबुल कौन था, जिस ने पारे को पत्थर में ढाला
और हर्शल की आँखे जो बस आसमानों पर रहती,
क्या वो इंग्लैंड का मोहसिन नहीं
समंदर की तस्ख़ीर और अटलांटिक पे आबादियाँ, मछलियाँ कश्तियों जैसी क्यों है
और राफेल के हाथ पर मट्टी कैसे लगी, क्या ये नीत्शे का मतलब भी निश्ते की तरह नहीं तो नहीं है
ये सवाल और ये सारी बातें मेरे किस काम की
पिछले दस साल से उसकी आवाज़ तक मैं नहीं सुन सका
और ये पूछते है कि हेगेल के नज़दीक तारीख़ क्या है
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