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Nazm Yaadein - Saghar Khayyam

Nazm Yaadein - Saghar Khayyam..

कमख़ाब से बदन वो वो रेशमी अदायें
सोज़े दुरुं से जालना दाग़ों का धायें धायें
उठते हैं और शोले फूकों से जो बुझायें
कैसा था वो ज़माना कैसे तुम्हें बतायें

परदे पड़े हुए है यादों की खिड़कियों पर
क़ुर्बान जानो दिल से उन भोली लड़कियों पर
मेंहदी के चोर जकड़े उन गोरी मुट्ठियों में
सोने का एक क़लम था चाँदी की उँगलियों में

लिक्खे थे ख़त जो उसने गर्मी की छुट्टियों में
रखते हैं गर्म दिल को शिद्दत की सर्दियों में
महका हुआ शगूफा जैसे किसी चमन का
क्या ज़ायक़ा बतायें उस बेसनी बदन का

साग़र किसे सुनायें वो इश्क़ का फ़साना
आहट ज़रा सी पाना कोठे पे दौड़ आना
उट्ठा कुछ इस तरह फ़िर दोनों का आबो दाना
अब ग़ैर का नशेमन उसका है आशियाना

कब ख़ैरियत से गुज़रे दिन अपनी आशिक़ी के
अम्मी हैं वो किसी की अब्बु हैं हम किसी के
पिंडली वो गोरी गोरी पायल वो सादी सादी
हम से मोहब्बतें कीं और की किसी से शादी

दोनों की क़िस्मतों में लिक्खी थी नामुरादी
रानी है वो किसी की इस दिल की शाहज़ादी
रस्ते मोहब्बतों के काटे हैं बिल्लियों ने
हम जैसे कितने अब्बु मारे हैं अम्मियों ने

अब भी है याद दिल को वो इश्क़ का ज़माना
वो चाँद सी हथेली वो पान का बनाना
चुना कभी लगाना कत्था कभी लगाना
चुटकी से फ़िर पकड़ कर मेरी तरफ बढ़ाना

उस पान का न उतरा सर से जूनून अब तक
खायी थी इक गिलौरी थूका है खून अब तक
झूटा हुआ है जब से ये इश्क़ का फसाना
मेहबूब भी सिड़ी है आशिक़ भी है दीवाना

दोनों बना रहे हैं पानी पे आशियाना
थम्स उप की बोतलों का आया है क्या ज़माना
देखो वफा की रस्में कैसे मिटा रहे हैं
एक दुसरे को बैठे ठेंगा दिखा रहे हैं

होटों पे मुस्कुराहट आँखें बुझी बुझी हैं
बिजली गिरी है दिल पर वो जब कहीं मिली हैं
हम कौन से हैं ज़िंदा वो भी तो मर चुकी हैं
हम भी हैं अब नमाज़ी और वो भी मुत्तक़ी हैं

पहलू में रख के तकिये बिरह की रात खुश हैं
हम दोनों अपने अपने बच्चों के साथ खुश हैं|

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Kamkhaab se badan wo, wo reshami adayen
soze durun se jalna, daghon ka dhayen dhayen
uthte hain aur shole phukon se jo bujhayen
kaisa tha wo zamana kaise tumhain batayen

parde pade huye hain yadon ki khidkiyon par
qurban jano dil se un bholi ladkiyon par
mehndi ke chor jakde un gori muttiyon main
sone ka ek qalam tha chandi ki ungliyon main

likhe the khat jo usne garmi ki chuttiyon main
rakhte hain garm dil ko shiddat ki sardiyon main
mehka hua shagufa jaise kisi chaman ka
kya zayqa batayen us besani badan ka

saghar kise sunayen wo ishq ka fasana
aahat zara si pana kothe pa dod aana
uttha kuch is tarah phir dono ko aabo dana
ab ghair ka nasheman uska hai aashiyana

kab khairiyat se ghuzre din apni aashiqi ke
ammi hain wo kisi ki abbu hain hum kise ke
pindli wo gori gori payal wo sadi sadi
hum se mohabbatain kin aur ki kisi se shadi

dono ki qismaton main likkhi thi namuradi
rani hai wo kisi ki is dil ki shahzadi
raste mohabbaton ke kate hain billion ne
hum jaise kitne abbu mare hain ammiyon ne

ab bhi hai yad dil ko wo ishq ka zamana
wo chand si hateli wo pan ka banana
chuna kabhi lagana kattha kabhi lagana
chutki se phir pakad kar meri taraf badhana

us pan ka na utra sar se junoon ab tak
khayi thi ek gilori thuka hai khoon ab tak
jhoota hua hai jab se ye ishq ka fasana
mehboob bhi sidi hai aashiq bhi hai diwana

donon bana rahe hain pani pa aashiana
thums up ki botlon ka aaya hai kaya zamana
dekho wafa ki rasme kaise mita rahe hain
ek dusre ko baithe thenga dikha rahe hain

hoton pa muskurahat aankhen bujhi bujhi hain
bijli giri hai dil par wo jab kahin mili hain
hum kaun se hain zinda wo bhi to mar chuki hain
hum bhi hain ab namazi aur wo bhi muttaqi hain

pehlu main le ke takiye birha ki rat khush hain
hum dono apne apne bachhon ke sath khus hain
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maine ye kab kaha ki wo mujhe kabhi akela nahi chhodta

maine ye kab kaha ki wo mujhe kabhi akela nahi chhodta..

मैंने ये कब कहा की वो मुझे अकेला नही छोड़ता
छोड़ता है मगर एक दिन से ज्यादा नहीं छोड़ता

कौन शहराओ की प्यास है इन मकानो की बुनियाद मे
बारिश से बच भी जाये तो दरिया नहीं छोड़ता

मैं जिस से छुप कर तुमसे मिला हूँ अगर आज वो
देख लेता तो शायद वो दोनों को ज़िंदा नहीं छोड़ता

तय-शुदा वक़्त पर पहुँच जाता है वो प्यार करने वसूल
जिस तरह अपना कर्जा कोई बनिया नहीं छोडता

आज पहली दफा उसे मिलना है और एक खदशा भी है
वो जिसे छोड़ देता है उसे कही का नहीं छोड़ता


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maine ye kab kaha ki wo mujhe kabhi akela nahi chhodta
chhodta hai magar ek din se jyada nahi chhodta

kaun shehrao ki pyaas hai in makano ki buniyad me
barish se bach bhi jaye to dariya nahi chhodta

mai jis se chhup kar tumse mila hoo agar aaj wo
dekh leta to shayad wo dono ko jinda nahi chhodta

tay-shuda wqt pr pahunch jata hai wo pyaar krne wasool
jis tar aona karza koi baniya nahi chhodta

aaj pehli dafa use milna haui aur ek khadsa bhi hai
wo jise chhod deta hai use kahi ka nhi chhodta.
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15th August yahi jagah thi yahi din tha aur yahi lamhat

15th August yahi jagah thi yahi din tha aur yahi lamhat..

यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात
सरों पे छाई थी सदियों से इक जो काली रात
इसी जगह इसी दिन तो मिली थी उस को मात
इसी जगह इसी दिन तो हुआ था ये एलान
अँधेरे हार गए ज़िंदाबाद हिन्दोस्तान
यहीं तो हम ने कहा था ये कर दिखाना है 
जो ज़ख़्म तन पे है भारत के उस को भरना है
जो दाग़ माथे पे भारत के है मिटाना है 
यहीं तो खाई थी हम सब ने ये क़सम उस दिन 
यहीं से निकले थे अपने सफ़र पे हम उस दिन 
यहीं था गूँज उठा वन्दे-मातरम उस दिन 
है जुरअतों का सफ़र वक़्त की है राहगुज़र 
नज़र के सामने है साठ मील का पत्थर 
कोई जो पूछे किया क्या है कुछ किया है अगर 
तो उस से कह दो कि वो आए देख ले आ कर 
लगाया हम ने था जम्हूरियत का जो पौधा 
वो आज एक घनेरा सा ऊँचा बरगद है 
और उस के साए में क्या बदला कितना बदला है 
कब इंतिहा है कोई इस की कब कोई हद है

चमक दिखाते हैं ज़र्रे अब आसमानों को 
ज़बान मिल गई है सारे बे-ज़बानों को 
जो ज़ुल्म सहते थे वो अब हिसाब माँगते हैं 
सवाल करते हैं और फिर जवाब माँगते हैं 
ये कल की बात है सदियों पुरानी बात नहीं 
कि कल तलक था यहाँ कुछ भी अपने हाथ नहीं 
विदेशी राज ने सब कुछ निचोड़ डाला था 
हमारे देश का हर कर्धा तोड़ डाला था 
जो मुल्क सूई की ख़ातिर था औरों का मुहताज 
हज़ारों चीज़ें वो दुनिया को दे रहा है आज 
नया ज़माना लिए इक उमंग आया है 
करोड़ों लोगों के चेहरे पे रंग आया है 
ये सब किसी के करम से न है इनायत से 
यहाँ तक आया है भारत ख़ुद अपनी मेहनत से

जो कामयाबी है उस की ख़ुशी तो पूरी है 
मगर ये याद भी रखना बहुत ज़रूरी है 
कि दास्तान हमारी अभी अधूरी है 
बहुत हुआ है मगर फिर भी ये कमी तो है 
बहुत से होंठों पे मुस्कान आ गई लेकिन 
बहुत सी आँखें है जिन में अभी नमी तो है

यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात 
यहीं तो देखा था इक ख़्वाब सोची थी इक बात 
मुसाफ़िरों के दिलों में ख़याल आता है 
हर इक ज़मीर के आगे सवाल आता है 
वो बात याद है अब तक हमें कि भूल गए 
वो ख़्वाब अब भी सलामत है या फ़ुज़ूल गए 
चले थे दिल में लिए जो इरादे पूरे हुए 
ये कौन है कि जो यादों में चरख़ा कातता है 
ये कौन है जो हमें आज भी बताता है 
है वादा ख़ुद से निभाना हमें अगर अपना 
तो कारवाँ नहीं रुक पाए भूल कर अपना 
है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना 
मुसाफ़िरो अभी बाक़ी है कुछ सफ़र अपना

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yahi jagah thi yahi din tha aur yahi lamhat
saron pe chha.i thi sadiyon se ik jo kaali raat 
isi jagah isi din to mili thi us ko maat 
isi jagah isi din to hua tha ye elaan 
andhere haar ga.e zindabad hindostan 
yahin to ham ne kaha tha ye kar dikhana hai 
jo zakhm tan pe hai bharat ke us ko bharna hai 
jo daagh mathe pe bharat ke hai miTana hai 
yahin to khaa.i thi ham sab ne ye qasam us din 
yahin se nikle the apne safar pe ham us din 
yahin tha guunj uTha vande-matram us din 
hai jur.aton ka safar vaqt ki hai rahguzar 
nazar ke samne hai saaTh miil ka patthar 
koi jo puchhe kiya kya hai kuchh kiya hai agar 
to us se kah do ki vo aa.e dekh le aa kar 
lagaya ham ne tha jamhuriyat ka jo paudha 
vo aaj ek ghanera sa uncha bargad hai 
aur us ke saa.e men kya badla kitna badla hai 
kab intiha hai koi is ki kab koi had hai 

chamak dikhate hain zarre ab asmanon ko 
zaban mil ga.i hai saare be-zabanon ko 
jo zulm sahte the vo ab hisab mangte hain 
saval karte hain aur phir javab mangte hain 
ye kal ki baat hai sadiyon purani baat nahin 
ki kal talak tha yahan kuchh bhi apne haath nahin 
videshi raaj ne sab kuchh nichoD Daala tha 
hamare desh ka har kargha toD Daala tha 
jo mulk suui ki khatir tha auron ka muhtaj 
hazaron chizen vo duniya ko de raha hai aaj 
naya zamana liye ik umang aaya hai 
karoDon logon ke chehre pe rang aaya hai 
ye sab kisi ke karam se na hai inayat se 
yahan tak aaya hai bharat khud apni mehnat se 

jo kamyabi hai us ki khushi to puuri hai 
magar ye yaad bhi rakhna bahut zaruri hai 
ki dastan hamari abhi adhuri hai 
bahut hua hai magar phir bhi ye kami to hai 
bahut se honThon pe muskan aa ga.i lekin 
bahut si ankhen hai jin men abhi nami to hai

yahi jagah thi yahi din tha aur yahi lamhat 
yahin to dekha tha ik khvab sochi thi ik baat 
musafiron ke dilon men khayal aata hai 
har ik zamir ke aage saval aata hai 
vo baat yaad hai ab tak hamen ki bhuul ga.e 
vo khvab ab bhi salamat hai ya fuzul ga.e 
chale the dil men liye jo irade puure hue 
ye kaun hai ki jo yadon men charkha kat.ta hai 
ye kaun hai jo hamen aaj bhi batata hai 
hai va.ada khud se nibhana hamen agar apna 
to karvan nahin ruk paa.e bhuul kar apna 
hai thoDi duur abhi sapnon ka nagar apna 
musafiro abhi baaqi hai kuchh safar apna
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jawab-e-shikwa dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai allama Iqbal

jawab-e-shikwa dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai allama Iqbal..

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है
क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है 
ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है 
इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा 
आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा 
पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई 
बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई 
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई 
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई 
कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा 
मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा 
थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या 
अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या 
ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या 
आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या 
ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं 
शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं 
इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है 
था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है 
आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है 
हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है 
नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को 
बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को 
आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा 
अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा 
आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा 
किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा 
शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू ने 
हम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने 
हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं 
राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं 
तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं 
जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं 
कोई क़ाबिल हो तो हम शान-ए-कई देते हैं 
ढूँडने वालों को दुनिया भी नई देते हैं 
हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं 
उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं 
बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं 
था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं 
बादा-आशाम नए बादा नया ख़ुम भी नए 
हरम-ए-काबा नया बुत भी नए तुम भी नए 
वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था 
नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था 
जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था 
कभी महबूब तुम्हारा यही हरजाई था 
किसी यकजाई से अब अहद-ए-ग़ुलामी कर लो 
मिल्लत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल को मक़ामी कर लो 
किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है 
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है 
तब-ए-आज़ाद पे क़ैद-ए-रमज़ाँ भारी है 
तुम्हीं कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है 
क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं 
जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं 
जिन को आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो 
नहीं जिस क़ौम को परवा-ए-नशेमन तुम हो 
बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो 
बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो 
हो निको नाम जो क़ब्रों की तिजारत कर के 
क्या न बेचोगे जो मिल जाएँ सनम पत्थर के 
सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया किस ने 
नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया किस ने 
मेरे काबे को जबीनों से बसाया किस ने 
मेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया किस ने 
थे तो आबा वो तुम्हारे ही मगर तुम क्या हो 
हाथ पर हाथ धरे मुंतज़िर-ए-फ़र्दा हो 
क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर 
शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर 
अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर 
मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर 
तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं 
जल्वा-ए-तूर तो मौजूद है मूसा ही नहीं 
मंफ़अत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक 
एक ही सब का नबी दीन भी ईमान भी एक 
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक 
कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक 
फ़िरक़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं 
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं 
कौन है तारिक-ए-आईन-ए-रसूल-ए-मुख़्तार 
मस्लहत वक़्त की है किस के अमल का मेआर 
किस की आँखों में समाया है शिआर-ए-अग़्यार 
हो गई किस की निगह तर्ज़-ए-सलफ़ से बे-ज़ार 
क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं 
कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं 
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब 
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब 
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब 
पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब 
उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से 
ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से 
वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही 
बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही 
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही 
फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही 
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे 
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे 
शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद 
हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद 
वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद 
ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद 
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो 
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो 
दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाक 
अदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक 
शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक 
था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक 
ख़ुद-गुदाज़ी नम-ए-कैफ़ियत-ए-सहबा-यश बूद 
ख़ाली-अज़-ख़ेश शुदन सूरत-ए-मीना-यश बूद 
हर मुसलमाँ रग-ए-बातिल के लिए नश्तर था 
उस के आईना-ए-हस्ती में अमल जौहर था 
जो भरोसा था उसे क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर था 
है तुम्हें मौत का डर उस को ख़ुदा का डर था 
बाप का इल्म न बेटे को अगर अज़बर हो 
फिर पिसर क़ाबिल-ए-मीरास-ए-पिदर क्यूँकर हो 
हर कोई मस्त-ए-मय-ए-ज़ौक़-ए-तन-आसानी है 
तुम मुसलमाँ हो ये अंदाज़-ए-मुसलमानी है 
हैदरी फ़क़्र है ने दौलत-ए-उस्मानी है 
तुम को अस्लाफ़ से क्या निस्बत-ए-रूहानी है 
वो ज़माने में मुअज़्ज़िज़ थे मुसलमाँ हो कर 
और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआँ हो कर 
तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम 
तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम 
चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम 
पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम 
तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी 
यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी 
ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार 
तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार 
तुम हो गुफ़्तार सरापा वो सरापा किरदार 
तुम तरसते हो कली को वो गुलिस्ताँ ब-कनार 
अब तलक याद है क़ौमों को हिकायत उन की 
नक़्श है सफ़्हा-ए-हस्ती पे सदाक़त उन की 
मिस्ल-ए-अंजुम उफ़ुक़-ए-क़ौम पे रौशन भी हुए 
बुत-ए-हिन्दी की मोहब्बत में बिरहमन भी हुए 
शौक़-ए-परवाज़ में महजूर-ए-नशेमन भी हुए 
बे-अमल थे ही जवाँ दीन से बद-ज़न भी हुए 
इन को तहज़ीब ने हर बंद से आज़ाद किया 
ला के काबे से सनम-ख़ाने में आबाद किया 
क़ैस ज़हमत-कश-ए-तन्हाई-ए-सहरा न रहे 
शहर की खाए हवा बादिया-पैमा न रहे 
वो तो दीवाना है बस्ती में रहे या न रहे 
ये ज़रूरी है हिजाब-ए-रुख़-ए-लैला न रहे 
गिला-ए-ज़ौर न हो शिकवा-ए-बेदाद न हो 
इश्क़ आज़ाद है क्यूँ हुस्न भी आज़ाद न हो 
अहद-ए-नौ बर्क़ है आतिश-ज़न-ए-हर-ख़िर्मन है 
ऐमन इस से कोई सहरा न कोई गुलशन है 
इस नई आग का अक़्वाम-ए-कुहन ईंधन है 
मिल्लत-ए-ख़त्म-ए-रसूल शोला-ब-पैराहन है 
आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा 
आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा 
देख कर रंग-ए-चमन हो न परेशाँ माली 
कौकब-ए-ग़ुंचा से शाख़ें हैं चमकने वाली 
ख़स ओ ख़ाशाक से होता है गुलिस्ताँ ख़ाली 
गुल-बर-अंदाज़ है ख़ून-ए-शोहदा की लाली 
रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है 
ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है 
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं 
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं 
सैकड़ों नख़्ल हैं काहीदा भी बालीदा भी हैं 
सैकड़ों बत्न-ए-चमन में अभी पोशीदा भी हैं 
नख़्ल-ए-इस्लाम नमूना है बिरौ-मंदी का 
फल है ये सैकड़ों सदियों की चमन-बंदी का 
पाक है गर्द-ए-वतन से सर-ए-दामाँ तेरा 
तू वो यूसुफ़ है कि हर मिस्र है कनआँ तेरा 
क़ाफ़िला हो न सकेगा कभी वीराँ तेरा 
ग़ैर यक-बाँग-ए-दारा कुछ नहीं सामाँ तेरा 
नख़्ल-ए-शमा अस्ती ओ दर शोला दो-रेशा-ए-तू 
आक़िबत-सोज़ बवद साया-ए-अँदेशा-ए-तू 
तू न मिट जाएगा ईरान के मिट जाने से 
नश्शा-ए-मय को तअल्लुक़ नहीं पैमाने से 
है अयाँ यूरिश-ए-तातार के अफ़्साने से 
पासबाँ मिल गए काबे को सनम-ख़ाने से 
कश्ती-ए-हक़ का ज़माने में सहारा तू है 
अस्र-ए-नौ-रात है धुँदला सा सितारा तू है 
है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का 
ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का 
तू समझता है ये सामाँ है दिल-आज़ारी का 
इम्तिहाँ है तिरे ईसार का ख़ुद्दारी का 
क्यूँ हिरासाँ है सहिल-ए-फ़रस-ए-आदा से 
नूर-ए-हक़ बुझ न सकेगा नफ़स-ए-आदा से 
चश्म-ए-अक़्वाम से मख़्फ़ी है हक़ीक़त तेरी 
है अभी महफ़िल-ए-हस्ती को ज़रूरत तेरी 
ज़िंदा रखती है ज़माने को हरारत तेरी 
कौकब-ए-क़िस्मत-ए-इम्काँ है ख़िलाफ़त तेरी 
वक़्त-ए-फ़ुर्सत है कहाँ काम अभी बाक़ी है 
नूर-ए-तौहीद का इत्माम अभी बाक़ी है 
मिस्ल-ए-बू क़ैद है ग़ुंचे में परेशाँ हो जा 
रख़्त-बर-दोश हवा-ए-चमनिस्ताँ हो जा 
है तुनक-माया तू ज़र्रे से बयाबाँ हो जा 
नग़्मा-ए-मौज है हंगामा-ए-तूफ़ाँ हो जा 
क़ुव्वत-ए-इश्क़ से हर पस्त को बाला कर दे 
दहर में इस्म-ए-मोहम्मद से उजाला कर दे 
हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो 
चमन-ए-दह्र में कलियों का तबस्सुम भी न हो 
ये न साक़ी हो तो फिर मय भी न हो ख़ुम भी न हो 
बज़्म-ए-तौहीद भी दुनिया में न हो तुम भी न हो 
ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का इस्तादा इसी नाम से है 
नब्ज़-ए-हस्ती तपिश-आमादा इसी नाम से है 
दश्त में दामन-ए-कोहसार में मैदान में है 
बहर में मौज की आग़ोश में तूफ़ान में है 
चीन के शहर मराक़श के बयाबान में है 
और पोशीदा मुसलमान के ईमान में है 
चश्म-ए-अक़्वाम ये नज़्ज़ारा अबद तक देखे 
रिफ़अत-ए-शान-ए-रफ़ाना-लका-ज़िक्र देखे 
मर्दुम-ए-चश्म-ए-ज़मीं यानी वो काली दुनिया 
वो तुम्हारे शोहदा पालने वाली दुनिया 
गर्मी-ए-मेहर की परवरदा हिलाली दुनिया 
इश्क़ वाले जिसे कहते हैं बिलाली दुनिया 
तपिश-अंदोज़ है इस नाम से पारे की तरह 
ग़ोता-ज़न नूर में है आँख के तारे की तरह 
अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी 
मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी 
मा-सिवा-अल्लाह के लिए आग है तकबीर तिरी 
तू मुसलमाँ हो तो तक़दीर है तदबीर तिरी 
की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं 
ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं 

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dil se jo baat nikalti hai asar rakhti hai
par nahin taqat-e-parvaz magar rakhti hai 
qudsi-ul-asl hai rif.at pe nazar rakhti hai 
khaak se uThti hai gardun pe guzar rakhti hai 
ishq tha fitnagar o sarkash o chalak mira 
asman chiir gaya nala-e-bebak mira 
pir-e-gardun ne kaha sun ke kahin hai koi 
bole sayyare sar-e-arsh-e-barin hai koi 
chand kahta tha nahin ahl-e-zamin hai koi 
kahkashan kahti thi poshida yahin hai koi 
kuchh jo samjha mire shikve ko to rizvan samjha 
mujh ko jannat se nikala hua insan samjha 
thi farishton ko bhi hairat ki ye avaz hai kya 
arsh valon pe bhi khulta nahin ye raaz hai kya 
ta-sar-e-arsh bhi insan ki tag-o-taz hai kya 
aa ga.i khaak ki chuTki ko bhi parvaz hai kya 
ghafil adab se sukkan-e-zamin kaise hain 
shokh o gustakh ye pasti ke makin kaise hain 
is qadar shokh ki allah se bhi barham hai 
tha jo masjud-e-mala.ik ye vahi aadam hai 
alim-e-kaif hai dana-e-rumuz-e-kam hai 
haan magar ijz ke asrar se na-mahram hai 
naaz hai taqat-e-guftar pe insanon ko 
baat karne ka saliqa nahin na-danon ko 
aa.i avaz gham-angez hai afsana tira 
ashk-e-betab se labrez hai paimana tira 
asman-gir hua nara-e-mastana tira 
kis qadar shokh-zaban hai dil-e-divana tira 
shukr shikve ko kiya husn-e-ada se tu ne 
ham-sukhan kar diya bandon ko khuda se tu ne 
ham to ma.il-ba-karam hain koi saa.il hi nahin 
raah dikhla.en kise rah-rav-e-manzil hi nahin 
tarbiyat aam to hai jauhar-e-qabil hi nahin 
jis se ta.amir ho aadam ki ye vo gil hi nahin 
koi qabil ho to ham shan-e-ka.i dete hain 
DhunDne valon ko duniya bhi na.i dete hain 
haath be-zor hain ilhad se dil khugar hain 
ummati ba.is-e-rusva.i-e-paighambar hain 
but-shikan uTh ga.e baaqi jo rahe but-gar hain 
tha brahim pidar aur pisar aazar hain 
bada-asham na.e baada naya khum bhi na.e 
haram-e-kaba naya but bhi na.e tum bhi na.e 
vo bhi din the ki yahi maya-e-rana.i tha 
nazish-e-mausam-e-gul lala-e-sahra.i tha 
jo musalman tha allah ka sauda.i tha 
kabhi mahbub tumhara yahi harja.i tha 
kisi yakja.i se ab ahd-e-ghulami kar lo 
millat-e-ahmad-e-mursil ko maqami kar lo 
kis qadar tum pe giran sub.h ki bedari hai 
ham se kab pyaar hai haan niind tumhen pyari hai 
tab-e-azad pe qaid-e-ramazan bhari hai 
tumhin kah do yahi a.in-e-vafadari hai 
qaum maz.hab se hai maz.hab jo nahin tum bhi nahin 
jazb-e-baham jo nahin mahfil-e-anjum bhi nahin 
jin ko aata nahin duniya men koi fan tum ho 
nahin jis qaum ko parva-e-nasheman tum ho 
bijliyan jis men hon asuda vo khirman tum ho 
bech khate hain jo aslaf ke madfan tum ho 
ho niko naam jo qabron ki tijarat kar ke 
kya na bechoge jo mil jaa.en sanam patthar ke 
safha-e-dahr se batil ko miTaya kis ne 
nau-e-insan ko ghulami se chhuDaya kis ne 
mere ka.abe ko jabinon se basaya kis ne 
mere qur.an ko sinon se lagaya kis ne 
the to aaba vo tumhare hi magar tum kya ho 
haath par haath dhare muntazir-e-farda ho 
kya kaha bahr-e-musalman hai faqat vada-e-hur 
shikva beja bhi kare koi to lazim hai shu.ur 
adl hai fatir-e-hasti ka azal se dastur 
muslim aa.iin hua kafir to mile huur o qusur 
tum men huron ka koi chahne vaala hi nahin 
jalva-e-tur to maujud hai muusa hi nahin 
manfa.at ek hai is qaum ka nuqsan bhi ek 
ek hi sab ka nabi diin bhi iman bhi ek 
haram-e-pak bhi allah bhi qur.an bhi ek 
kuchh baDi baat thi hote jo musalman bhi ek 
firqa-bandi hai kahin aur kahin zaten hain 
kya zamane men panapne ki yahi baten hain 
kaun hai tarik-e-a.in-e-rasul-e-mukhtar 
maslahat vaqt ki hai kis ke amal ka me.aar 
kis ki ankhon men samaya hai shi.ar-e-aghyar 
ho ga.i kis ki nigah tarz-e-salaf se be-zar 
qalb men soz nahin ruuh men ehsas nahin 
kuchh bhi paigham-e-mohammad ka tumhen paas nahin 
ja ke hote hain masajid men saf-ara to gharib 
zahmat-e-roza jo karte hain gavara to gharib 
naam leta hai agar koi hamara to gharib 
parda rakhta hai agar koi tumhara to gharib 
umara nashsha-e-daulat men hain ghafil ham se 
zinda hai millat-e-baiza ghoraba ke dam se 
va.iz-e-qaum ki vo pukhta-khayali na rahi 
barq-e-tab.i na rahi shola-maqali na rahi 
rah ga.i rasm-e-azan ruh-e-bilali na rahi 
falsafa rah gaya talqin-e-ghazali na rahi 
masjiden marsiyan-khvan hain ki namazi na rahe 
yaani vo sahib-e-ausaf-e-hijazi na rahe 
shor hai ho ga.e duniya se musalman nabud 
ham ye kahte hain ki the bhi kahin muslim maujud 
vaz.a men tum ho nasara to tamaddun men hunud 
ye musalman hain jinhen dekh ke sharma.en yahud 
yuun to sayyad bhi ho mirza bhi ho afghan bhi ho 
tum sabhi kuchh ho batao to musalman bhi ho 
dam-e-taqrir thi muslim ki sadaqat bebak 
adl us ka tha qavi laus-e-mara.at se paak 
shajar-e-fitrat-e-muslim tha haya se namnak 
tha shuja.at men vo ik hasti-e-fauq-ul-idrak 
khud-gudazi nam-e-kaifiyat-e-sahba-yash buud 
khali-az-khesh shudan surat-e-mina-yash buud 
har musalman rag-e-batil ke liye nashtar tha 
us ke a.ina-e-hasti men amal jauhar tha 
jo bharosa tha use quvvat-e-bazu par tha 
hai tumhen maut ka Dar us ko khuda ka Dar tha 
baap ka ilm na beTe ko agar azbar ho 
phir pisar qabil-e-miras-e-pidar kyunkar ho 
har koi mast-e-mai-e-zauq-e-tan-asani hai 
tum musalman ho ye andaz-e-musalmani hai 
haidari faqr hai ne daulat-e-usmani hai 
tum ko aslaf se kya nisbat-e-ruhani hai 
vo zamane men muazziz the musalman ho kar 
aur tum khvar hue tarik-e-qur.an ho kar 
tum ho aapas men ghazabnak vo aapas men rahim 
tum khata-kar o khata-bin vo khata-posh o karim 
chahte sab hain ki hon auj-e-surayya pe muqim 
pahle vaisa koi paida to kare qalb-e-salim 
takht-e-faghfur bhi un ka tha sarir-e-ka.e bhi 
yuun hi baten hain ki tum men vo hamiyat hai bhi 
khud-kushi sheva tumhara vo ghayur o khuddar 
tum ukhuvvat se gurezan vo ukhuvvat pe nisar 
tum ho guftar sarapa vo sarapa kirdar 
tum taraste ho kali ko vo gulistan ba-kanar 
ab talak yaad hai qaumon ko hikayat un ki 
naqsh hai safha-e-hasti pe sadaqat un ki 
misl-e-anjum ufuq-e-qaum pe raushan bhi hue 
but-e-hindi ki mohabbat men birhman bhi hue 
shauq-e-parvaz men mahjur-e-nasheman bhi hue 
be-amal the hi javan diin se bad-zan bhi hue 
in ko tahzib ne har band se azad kiya 
la ke ka.abe se sanam-khane men abad kiya 
qais zahmat-kash-e-tanha.i-e-sahra na rahe 
shahr ki khaa.e hava badiya-paima na rahe 
vo to divana hai basti men rahe ya na rahe 
ye zaruri hai hijab-e-rukh-e-laila na rahe 
gila-e-zaur na ho shikva-e-bedad na ho 
ishq azad hai kyuun husn bhi azad na ho 
ahd-e-nau barq hai atish-zan-e-har-khirman hai 
aiman is se koi sahra na koi gulshan hai 
is na.i aag ka aqvam-e-kuhan indhan hai 
millat-e-khatm-e-rusul shola-ba-pairahan hai 
aaj bhi ho jo brahim ka iman paida 
aag kar sakti hai andaz-e-gulistan paida 
dekh kar rang-e-chaman ho na pareshan maali 
Kaukab-e-ghuncha se shakhen hain chamakne vaali 
khas o khashak se hota hai gulistan khali 
ghul-bar-andaz hai khun-e-shohda ki laali 
rang gardun ka zara dekh to unnabi hai
ye nikalte hue suraj ki ufuq-tabi hai 
ummaten gulshan-e-hasti men samar-chida bhi hain 
aur mahrum-e-samar bhi hain khizan-dida bhi hain 
saikDon nakhl hain kahida bhi balida bhi hain 
saikDon batn-e-chaman men abhi poshida bhi hain 
nakhl-e-islam namuna hai birau-mandi ka 
phal hai ye saikDon sadiyon ki chaman-bandi ka 
paak hai gard-e-vatan se sar-e-daman tera 
tu vo yusuf hai ki har misr hai kan.an tera 
qafila ho na sakega kabhi viran tera 
ghair yak-bang-e-dara kuchh nahin saman tera 
nakhl-e-shama asti o dar shola do-resha-e-tu 
aqibat-soz bavad saya-e-andesha-e-tu 
tu na miT ja.ega iran ke miT jaane se 
nashsha-e-mai ko ta.alluq nahin paimane se 
hai ayaan yurish-e-tatar ke afsane se 
pasban mil ga.e ka.abe ko sanam-khane se 
kashti-e-haq ka zamane men sahara tu hai 
asr-e-nau-rat hai dhundla sa sitara tu hai 
hai jo hangama bapa yurish-e-bulghari ka 
ghafilon ke liye paigham hai bedari ka 
tu samajhta hai ye saman hai dil-azari ka 
imtihan hai tire isar ka khuddari ka 
kyuun hirasan hai sahil-e-faras-e-ada se 
nur-e-haq bujh na sakega nafas-e-ada se 
chashm-e-aqvam se makhfi hai haqiqat teri 
hai abhi mahfil-e-hasti ko zarurat teri 
zinda rakhti hai zamane ko hararat teri 
kaukab-e-qismat-e-imkan hai khilafat teri 
vaqt-e-fursat hai kahan kaam abhi baaqi hai 
nur-e-tauhid ka itmam abhi baaqi hai 
misl-e-bu qaid hai ghunche men pareshan ho ja 
rakht-bar-dosh hava-e-chamanistan ho ja 
hai tunak-maya tu zarre se bayaban ho ja 
naghma-e-mauj hai hangama-e-tufan ho ja 
quvvat-e-ishq se har past ko baala kar de 
dahr men ism-e-mohammad se ujala kar de 
ho na ye phuul to bulbul ka tarannum bhi na ho 
chaman-e-dahr men kaliyon ka tabassum bhi na ho 
ye na saaqi ho to phir mai bhi na ho khum bhi na ho 
bazm-e-tauhid bhi duniya men na ho tum bhi na ho 
khema-e-aflak ka istada isi naam se hai 
nabz-e-hasti tapish-amada isi naam se hai 
dasht men daman-e-kohsar men maidan men hai 
bahr men mauj ki aghosh men tufan men hai 
chiin ke shahr maraqash ke bayaban men hai 
aur poshida musalman ke iman men hai 
chashm-e-aqvam ye nazzara abad tak dekhe 
rif.at-e-shan-e-rafana-laka-zikrak dekhe 
mardum-e-chashm-e-zamin yaani vo kaali duniya 
vo tumhare shohda palne vaali duniya 
garmi-e-mehr ki parvarda hilali duniya 
ishq vaale jise kahte hain bilali duniya 
tapish-andoz hai is naam se paare ki tarah 
ghota-zan nuur men hai aankh ke taare ki tarah 
aql hai teri sipar ishq hai shamshir tiri 
mire darvesh khilafat hai jahangir tiri 
ma-siva-allah ke liye aag hai takbir tiri 
tu musalman ho to taqdir hai tadbir tiri 
ki mohammad se vafa tu ne to ham tere hain 
ye jahan chiiz hai kya lauh-o-qalam tere hain
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shikwa Kyun ziyaan kar banun sud faramosh rahun Allama Iqbal

shikwa Kyun ziyaan kar banun sud faramosh rahun Allama Iqbal..

क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ 
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ 
नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ 
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ 
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को 
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को 
है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम 
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम 
साज़ ख़ामोश हैं फ़रियाद से मामूर हैं हम 
नाला आता है अगर लब पे तो मा'ज़ूर हैं हम 
ऐ ख़ुदा शिकवा-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा भी सुन ले 
ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले 
थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम 
फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम 
शर्त इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम 
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम 
हम को जमईयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी 
वर्ना उम्मत तिरे महबूब की दीवानी थी 
हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र 
कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं मा'बूद शजर 
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र 
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर 
तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा 
क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा 
बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी 
अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी 
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी 
इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी 
पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने 
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने 
थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में 
ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में 
दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में 
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में 
शान आँखों में न जचती थी जहाँ-दारों की 
कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की 
हम जो जीते थे तो जंगों की मुसीबत के लिए 
और मरते थे तिरे नाम की अज़्मत के लिए 
थी न कुछ तेग़ज़नी अपनी हुकूमत के लिए 
सर-ब-कफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए 
क़ौम अपनी जो ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर मरती 
बुत-फ़रोशीं के एवज़ बुत-शिकनी क्यूँ करती 
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे 
पाँव शेरों के भी मैदाँ से उखड़ जाते थे 
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे 
तेग़ क्या चीज़ है हम तोप से लड़ जाते थे 
नक़्श-ए-तौहीद का हर दिल पे बिठाया हम ने 
ज़ेर-ए-ख़ंजर भी ये पैग़ाम सुनाया हम ने 
तू ही कह दे कि उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किस ने 
शहर क़ैसर का जो था उस को किया सर किस ने 
तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने 
काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने 
किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को 
किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को 
कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई 
और तेरे लिए ज़हमत-कश-ए-पैकार हुई 
किस की शमशीर जहाँगीर जहाँ-दार हुई 
किस की तकबीर से दुनिया तिरी बेदार हुई 
किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे 
मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे 
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़ 
क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़ 
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़ 
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा-नवाज़ 
बंदा ओ साहब ओ मोहताज ओ ग़नी एक हुए 
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए 
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ में सहर ओ शाम फिरे 
मय-ए-तौहीद को ले कर सिफ़त-ए-जाम फिरे 
कोह में दश्त में ले कर तिरा पैग़ाम फिरे 
और मालूम है तुझ को कभी नाकाम फिरे 
दश्त तो दश्त हैं दरिया भी न छोड़े हम ने 
बहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिए घोड़े हम ने 
सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया हम ने 
नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया हम ने 
तेरे का'बे को जबीनों से बसाया हम ने 
तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हम ने 
फिर भी हम से ये गिला है कि वफ़ादार नहीं 
हम वफ़ादार नहीं तू भी तो दिलदार नहीं 
उम्मतें और भी हैं उन में गुनहगार भी हैं 
इज्ज़ वाले भी हैं मस्त-ए-मय-ए-पिंदार भी हैं 
उन में काहिल भी हैं ग़ाफ़िल भी हैं हुश्यार भी हैं 
सैकड़ों हैं कि तिरे नाम से बे-ज़ार भी हैं 
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर 
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर 
बुत सनम-ख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए 
है ख़ुशी उन को कि का'बे के निगहबान गए 
मंज़िल-ए-दहर से ऊँटों के हुदी-ख़्वान गए 
अपनी बग़लों में दबाए हुए क़ुरआन गए 
ख़ंदा-ज़न कुफ़्र है एहसास तुझे है कि नहीं 
अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं 
ये शिकायत नहीं हैं उन के ख़ज़ाने मामूर 
नहीं महफ़िल में जिन्हें बात भी करने का शुऊ'र 
क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर 
और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर 
अब वो अल्ताफ़ नहीं हम पे इनायात नहीं 
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं 
क्यूँ मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब 
तेरी क़ुदरत तो है वो जिस की न हद है न हिसाब 
तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हबाब 
रह-रव-ए-दश्त हो सैली-ज़दा-ए-मौज-ए-सराब 
तान-ए-अग़्यार है रुस्वाई है नादारी है 
क्या तिरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है 
बनी अग़्यार की अब चाहने वाली दुनिया 
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया 
हम तो रुख़्सत हुए औरों ने सँभाली दुनिया 
फिर न कहना हुई तौहीद से ख़ाली दुनिया 
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तिरा नाम रहे 
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे जाम रहे 
तेरी महफ़िल भी गई चाहने वाले भी गए 
शब की आहें भी गईं सुब्ह के नाले भी गए 
दिल तुझे दे भी गए अपना सिला ले भी गए 
आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए 
आए उश्शाक़ गए वादा-ए-फ़र्दा ले कर 
अब उन्हें ढूँड चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा ले कर 
दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही 
नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही 
इश्क़ का दिल भी वही हुस्न का जादू भी वही 
उम्मत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल भी वही तू भी वही 
फिर ये आज़ुर्दगी-ए-ग़ैर सबब क्या मा'नी 
अपने शैदाओं पे ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मा'नी 
तुझ को छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा 
बुत-गरी पेशा किया बुत-शिकनी को छोड़ा 
इश्क़ को इश्क़ की आशुफ़्ता-सरी को छोड़ा 
रस्म-ए-सलमान ओ उवैस-ए-क़रनी को छोड़ा 
आग तकबीर की सीनों में दबी रखते हैं 
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबशी रखते हैं 
इश्क़ की ख़ैर वो पहली सी अदा भी न सही 
जादा-पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी न सही 
मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-क़िबला-नुमा भी न सही 
और पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा भी न सही 
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है 
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है 
सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तू ने 
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तू ने 
आतिश-अंदोज़ किया इश्क़ का हासिल तू ने 
फूँक दी गर्मी-ए-रुख़्सार से महफ़िल तू ने 
आज क्यूँ सीने हमारे शरर-आबाद नहीं 
हम वही सोख़्ता-सामाँ हैं तुझे याद नहीं 
वादी-ए-नज्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा 
क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा 
हौसले वो न रहे हम न रहे दिल न रहा 
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक़-ए-महफ़िल न रहा 
ऐ ख़ुशा आँ रोज़ कि आई ओ ब-सद नाज़ आई 
बे-हिजाबाना सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई 
बादा-कश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे 
सुनते हैं जाम-ब-कफ़ नग़्मा-ए-कू-कू बैठे 
दौर हंगामा-ए-गुलज़ार से यकसू बैठे 
तेरे दीवाने भी हैं मुंतज़िर-ए-हू बैठे 
अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे 
बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे 
क़ौम-ए-आवारा इनाँ-ताब है फिर सू-ए-हिजाज़ 
ले उड़ा बुलबुल-ए-बे-पर को मज़ाक़-ए-परवाज़ 
मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़ 
तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़ 
नग़्मे बेताब हैं तारों से निकलने के लिए 
तूर मुज़्तर है उसी आग में जलने के लिए 
मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम की आसाँ कर दे 
मोर-ए-बे-माया को हम-दोश-ए-सुलेमाँ कर दे 
जिंस-ए-नायाब-ए-मोहब्बत को फिर अर्ज़ां कर दे 
हिन्द के दैर-नशीनों को मुसलमाँ कर दे 
जू-ए-ख़ूँ मी चकद अज़ हसरत-ए-दैरीना-ए-मा 
मी तपद नाला ब-निश्तर कद-ए-सीना-ए-मा 
बू-ए-गुल ले गई बैरून-ए-चमन राज़-ए-चमन 
क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़-ए-चमन 
अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन 
उड़ गए डालियों से ज़मज़मा-पर्दाज़-ए-चमन 
एक बुलबुल है कि महव-ए-तरन्नुम अब तक 
उस के सीने में है नग़्मों का तलातुम अब तक 
क़ुमरियाँ शाख़-ए-सनोबर से गुरेज़ाँ भी हुईं 
पत्तियाँ फूल की झड़ झड़ के परेशाँ भी हुईं 
वो पुरानी रौशें बाग़ की वीराँ भी हुईं 
डालियाँ पैरहन-ए-बर्ग से उर्यां भी हुईं 
क़ैद-ए-मौसम से तबीअत रही आज़ाद उस की 
काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उस की 
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में 
कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में 
कितने बेताब हैं जौहर मिरे आईने में 
किस क़दर जल्वे तड़पते हैं मिरे सीने में 
इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं 
दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं 
चाक इस बुलबुल-ए-तन्हा की नवा से दिल हों 
जागने वाले इसी बाँग-ए-दरा से दिल हों 
या'नी फिर ज़िंदा नए अहद-ए-वफ़ा से दिल हों 
फिर इसी बादा-ए-दैरीना के प्यासे दिल हों 
अजमी ख़ुम है तो क्या मय तो हिजाज़ी है मिरी 
नग़्मा हिन्दी है तो क्या लय तो हिजाज़ी है मिरी 

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kyuun ziyan-kar banun sud-faramosh rahun
fikr-e-farda na karun mahv-e-gham-e-dosh rahun 
naale bulbul ke sunun aur hama-tan gosh rahun 
ham-nava main bhi koi gul huun ki khamosh rahun 
jur.at-amoz miri tab-e-sukhan hai mujh ko 
shikva allah se khakam-ba-dahan hai mujh ko 
hai baja sheva-e-taslim men mash.hur hain ham 
qissa-e-dard sunate hain ki majbur hain ham 
saaz khamosh hain fariyad se mamur hain ham 
naala aata hai agar lab pe to ma.azur hain ham 
ai khuda shikva-e-arbab-e-vafa bhi sun le 
khugar-e-hamd se thoDa sa gila bhi sun le 
thi to maujud azal se hi tiri zat-e-qadim 
phuul tha zeb-e-chaman par na pareshan thi shamim 
shart insaf hai ai sahib-e-altaf-e-amim 
bu-e-gul phailti kis tarah jo hoti na nasim 
ham ko jam.iyat-e-khatir ye pareshani thi 
varna ummat tire mahbub ki divani thi 
ham se pahle tha ajab tere jahan ka manzar 
kahin masjud the patthar kahin ma.abud shajar 
khugar-e-paikar-e-mahsus thi insan ki nazar 
manta phir koi an-dekhe khuda ko kyunkar 
tujh ko ma.alum hai leta tha koi naam tira 
quvvat-e-bazu-e-muslim ne kiya kaam tira 
bas rahe the yahin saljuq bhi turani bhi 
ahl-e-chin chiin men iran men sasani bhi 
isi mamure men abad the yunani bhi 
isi duniya men yahudi bhi the nasrani bhi 
par tire naam pe talvar uTha.i kis ne 
baat jo bigDi hui thi vo bana.i kis ne 
the hamin ek tire marka-araon men 
khushkiyon men kabhi laDte kabhi dariyaon men 
diin azanen kabhi europe ke kalisaon men 
kabhi africa ke tapte hue sahraon men 
shaan ankhon men na jachti thi jahan-daron ki 
kalma paDhte the hamin chhanv men talvaron ki 
ham jo jiite the to jangon ki musibat ke liye 
aur marte the tire naam ki azmat ke liye 
thi na kuchh teghzani apni hukumat ke liye 
sar-ba-kaf phirte the kya dahr men daulat ke liye 
qaum apni jo zar-o-mal-e-jahan par marti 
but-faroshi ke evaz but-shikani kyuun karti 
Tal na sakte the agar jang men aD jaate the 
paanv sheron ke bhi maidan se ukhaD jaate the 
tujh se sarkash hua koi to bigaD jaate the 
tegh kya chiiz hai ham top se laD jaate the 
naqsh-e-tauhid ka har dil pe biThaya ham ne 
zer-e-khanjar bhi ye paigham sunaya ham ne 
tu hi kah de ki ukhaDa dar-e-khaibar kis ne 
shahr qaisar ka jo tha us ko kiya sar kis ne 
toDe makhluq khuda-vandon ke paikar kis ne 
kaaT kar rakh diye kuffar ke lashkar kis ne 
kis ne ThanDa kiya atish-kada-e-iran ko 
kis ne phir zinda kiya tazkira-e-yazdan ko 
kaun si qaum faqat teri talabgar hui 
aur tere liye zahmat-kash-e-paikar hui 
kis ki shamshir jahangir jahan-dar hui 
kis ki takbir se duniya tiri bedar hui 
kis ki haibat se sanam sahme hue rahte the 
munh ke bal gir ke hu-allahu-ahad kahte the 
aa gaya ain laDa.i men agar vaqt-e-namaz 
qibla-ru ho ke zamin-bos hui qaum-e-hijaz 
ek hi saf men khaDe ho ga.e mahmud o ayaaz 
na koi banda raha aur na koi banda-navaz
banda o sahab o mohtaj o ghani ek hue 
teri sarkar men pahunche to sabhi ek hue 
mahfil-e-kaun-o-makan men sahar o shaam phire 
mai-e-tauhid ko le kar sifat-e-jam phire 
koh men dasht men le kar tira paigham phire 
aur ma.alum hai tujh ko kabhi nakam phire 
dasht to dasht hain dariya bhi na chhoDe ham ne 
bahr-e-zulmat men dauDa diye ghoDe ham ne 
safha-e-dahr se batil ko miTaya ham ne 
nau-e-insan ko ghulami se chhuDaya ham ne 
tere ka.abe ko jabinon se basaya ham ne 
tere qur.an ko sinon se lagaya ham ne 
phir bhi ham se ye gila hai ki vafadar nahin 
ham vafadar nahin tu bhi to dildar nahin 
ummaten aur bhi hain un men gunahgar bhi hain 
ijz vaale bhi hain mast-e-mai-e-pindar bhi hain 
un men kahil bhi hain ghafil bhi hain hushyar bhi hain 
saikDon hain ki tire naam se be-zar bhi hain 
rahmaten hain tiri aghyar ke kashanon par 
barq girti hai to bechare musalmanon par 
but sanam-khanon men kahte hain musalman ga.e 
hai khushi un ko ki ka.abe ke nigahban ga.e 
manzil-e-dahr se unTon ke hudi-khvan ga.e 
apni baghlon men daba.e hue qur.an ga.e 
khanda-zan kufr hai ehsas tujhe hai ki nahin 
apni tauhid ka kuchh paas tujhe hai ki nahin 
ye shikayat nahin hain un ke khazane mamur 
nahin mahfil men jinhen baat bhi karne ka shu.ur 
qahr to ye hai ki kafir ko milen huur o qusur 
aur bechare musalman ko faqat vada-e-hur 
ab vo altaf nahin ham pe inayat nahin 
baat ye kya hai ki pahli si mudarat nahin 
kyuun musalmanon men hai daulat-e-duniya nayab 
teri qudrat to hai vo jis ki na had hai na hisab 
tu jo chahe to uThe sina-e-sahra se habab 
rah-rav-e-dasht ho saili-zada-e-mauj-e-sarab 
tan-e-aghyar hai rusva.i hai nadari hai 
kya tire naam pe marne ka evaz khvari hai 
bani aghyar ki ab chahne vaali duniya 
rah ga.i apne liye ek khayali duniya 
ham to rukhsat hue auron ne sanbhali duniya 
phir na kahna hui tauhid se khali duniya 
ham to jiite hain ki duniya men tira naam rahe 
kahin mumkin hai ki saaqi na rahe jaam rahe 
teri mahfil bhi ga.i chahne vaale bhi ga.e 
shab ki aahen bhi ga.iin sub.h ke naale bhi ga.e 
dil tujhe de bhi ga.e apna sila le bhi ga.e 
aa ke baiThe bhi na the aur nikale bhi ga.e 
aa.e ushshaq ga.e vada-e-farda le kar 
ab unhen DhunD charagh-e-rukh-e-zeba le kar 
dard-e-laila bhi vahi qais ka pahlu bhi vahi 
najd ke dasht o jabal men ram-e-ahu bhi vahi 
ishq ka dil bhi vahi husn ka jaadu bhi vahi 
ummat-e-ahmad-e-mursil bhi vahi tu bhi vahi 
phir ye azurdagi-e-ghair sabab kya ma.ani 
apne shaidaon pe ye chashm-e-ghazab kya ma.ani 
tujh ko chhoDa ki rasul-e-arabi ko chhoDa 
but-gari pesha kiya but-shikani ko chhoDa 
ishq ko ishq ki ashufta-sari ko chhoDa 
rasm-e-salman o uvais-e-qarani ko chhoDa 
aag takbir ki sinon men dabi rakhte hain 
zindagi misl-e-bilal-e-habashi rakhte hain 
ishq ki khair vo pahli si ada bhi na sahi 
jada-paimali-e-taslim-o-raza bhi na sahi 
muztarib dil sifat-e-qibla-numa bhi na sahi 
aur pabandi-e-a.in-e-vafa bhi na sahi 
kabhi ham se kabhi ghairon se shanasa.i hai 
baat kahne ki nahin tu bhi to harja.i hai 
sar-e-faran pe kiya diin ko kamil tu ne 
ik ishare men hazaron ke liye dil tu ne 
atish-andoz kiya ishq ka hasil tu ne 
phunk di garmi-e-rukhsar se mahfil tu ne 
aaj kyuun siine hamare sharer-abad nahin 
ham vahi sokhta-saman hain tujhe yaad nahin 
vadi-e-najd men vo shor-e-salasil na raha 
qais divana-e-nazzara-e-mahmil na raha 
hausle vo na rahe ham na rahe dil na raha 
ghar ye ujDa hai ki tu raunaq-e-mahfil na raha 
ai khusha aan roz ki aa.i o ba-sad naaz aa.i 
be-hijabana su-e-mahfil-e-ma baaz aa.i 
bada-kash ghair hain gulshan men lab-e-ju baiThe 
sunte hain jam-ba-kaf naghma-e-ku-ku baiThe 
daur hangama-e-gulzar se yaksu baiThe 
tere divane bhi hain muntazir-e-hu baiThe 
apne parvanon ko phir zauq-e-khud-afrozi de 
barq-e-derina ko farman-e-jigar-sozi de 
qaum-e-avara inan-tab hai phir su-e-hijaz 
le uDa bulbul-e-be-par ko mazaq-e-parvaz 
muztarib-e-bagh ke har ghunche men hai bu-e-niyaz 
tu zara chheD to de tishna-e-mizrab hai saaz 
naghme betab hain taron se nikalne ke liye 
tuur muztar hai usi aag men jalne ke liye 
mushkilen ummat-e-marhum ki asan kar de 
mor-e-be-maya ko ham-dosh-e-sulaiman kar de 
jins-e-nayab-e-mohabbat ko phir arzan kar de 
hind ke dair-nashinon ko musalman kar de
ju-e-khun mi chakad az hasrat-e-dairina-e-ma 
mi tapad naala ba-nishtar kada-e-sina-e-ma 
bu-e-gul le ga.i bairun-e-chaman raz-e-chaman 
kya qayamat hai ki khud phuul hain ghammaz-e-chaman 
ahd-e-gul khatm hua TuuT gaya saz-e-chaman 
uD ga.e Daliyon se zamzama-pardaz-e-chaman 
ek bulbul hai ki mahv-e-tarannum ab tak 
us ke siine men hai naghmon ka talatum ab tak 
qumriyan shakh-e-sanobar se gurezan bhi huiin 
pattiyan phuul ki jhaD jhaD ke pareshan bhi huiin 
vo purani raushen baagh ki viran bhi huiin 
Daliyan pairahan-e-barg se uryan bhi huiin 
qaid-e-mausam se tabi.at rahi azad us ki 
kaash gulshan men samajhta koi fariyad us ki 
lutf marne men hai baaqi na maza jiine men 
kuchh maza hai to yahi khun-e-jigar piine men 
kitne betab hain jauhar mire a.ine men 
kis qadar jalve taDapte hain mire siine men 
is gulistan men magar dekhne vaale hi nahin 
daagh jo siine men rakhte hon vo laale hi nahin 
chaak is bulbul-e-tanha ki nava se dil hon 
jagne vaale isi bang-e-dara se dil hon 
ya.ani phir zinda na.e ahd-e-vafa se dil hon 
phir isi bada-e-dairina ke pyase dil hon 
ajami khum hai to kya mai to hijazi hai miri 
naghma hindi hai to kya lai to hijazi hai miri
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Tere hontoon se behti hui yeh hansi - Tehzeeb Hafi

Tere hontoon se behti hui yeh hansi - Tehzeeb Hafi..

Tere hontoon se behti hui yeh hansi
Do jahanoon pe nafiz na honey ka bais tere hath hain
Jin ko tu ne hamesha laboon pe rakha muskaratey huey
Tu nahi janti neend ki goliaan kyun banai gain

Log kyun raat ko uth k rotey hain sotey nahi
Tu ne ab tak koi shab jagtey bhi ghuzari tu woh bar b night thi
Tujh ko kaise bataoon k teri sada k taqub mein main kaisey
Daryioon sehraoon aor jungloon sey ghuzarta hua aik aisi jagha ja gira tha

Jahan pair ka sokhna aik aam si baat thi
Jahan in chiraghoon ko jalney ki ujrat nahi mil rhi thi
Jahan larkioon k badan sirf khusb bananey kaam atey thy
Mujh ko maloom that tera aisey jahan aisi dunya se koi taluq nahi

Tu nahi janti kitni anhkein tujhe dekhtey dekhtey bujh gain
Kitney kurtey tere hath se istri ho k jalney ki khuwais liye khonthi sey latkey rhe
Kitney lab tere mathey ko tarsey
Kitni sharaein is shouq se phat gain hain k tu un k seeney pe paoon dharey

Main tujhe dhontey dhontey thak gya hoon
Ab mujhe teri mojodghi chahiye
Apney satan mein sehmey huey surkh peroon ko ab mere haathoon pe takh
Main ne chakna hai in ka namak
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ham dekhenge lazim hai hum bhi dekhenge

ham dekhenge lazim hai hum bhi dekhenge ..

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है 
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है 
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ 
रूई की तरह उड़ जाएँगे 
हम महकूमों के पाँव-तले 
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी 
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर 
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी 
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से 
सब बुत उठवाए जाएँगे 
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम 
मसनद पे बिठाए जाएँगे 
सब ताज उछाले जाएँगे 
सब तख़्त गिराए जाएँगे 
बस नाम रहेगा अल्लाह का 
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी 
जो मंज़र भी है नाज़िर भी 
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे...

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ham dekhenge
lazim hai ki ham bhi dekhenge
vo din ki jis ka va.ada hai
jo lauh-e-azal men likhkha hai
jab zulm-o-sitam ke koh-e-giran
ruui ki tarah uD ja.enge
ham mahkumon ke panv-tale
jab dharti dhaD-dhaD dhaDkegi
aur ahl-e-hakam ke sar-upar
jab bijli kaD-kaD kaDkegi
jab arz-e-khuda ke ka.abe se
sab but uThva.e ja.enge
ham ahl-e-safa mardud-e-haram
masnad pe biTha.e ja.enge
sab taaj uchhale ja.enge
sab takht gira.e ja.enge
bas naam rahega allah ka
jo gha.eb bhi hai hazir bhi
jo manzar bhi hai nazir bhi
uTThega anal-haq ka na.ara
jo main bhi huun aur tum bhi ho
aur raaj karegi khalq-e-khuda
jo main bhi huun aur tum bhi ho
hum dekhenge..
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ab ke tajdid-e-wafa ka nahin imkan jaanan

ab ke tajdid-e-wafa ka nahin imkan jaanan..

अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
याद क्या तुझ को दिलाएँ तिरा पैमाँ जानाँ

यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसाँ जानाँ

ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है
हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानाँ

दिल ये कहता है कि शायद है फ़सुर्दा तू भी
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानाँ

अव्वल अव्वल की मोहब्बत के नशे याद तो कर
बे-पिए भी तिरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानाँ

आख़िर आख़िर तो ये आलम है कि अब होश नहीं
रग-ए-मीना सुलग उट्ठी कि रग-ए-जाँ जानाँ

मुद्दतों से यही आलम न तवक़्क़ो न उमीद
दिल पुकारे ही चला जाता है जानाँ जानाँ

हम भी क्या सादा थे हम ने भी समझ रक्खा था
ग़म-ए-दौराँ से जुदा है ग़म-ए-जानाँ जानाँ

अब के कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ए-याराँ जानाँ
सर-ब-ज़ानू है कोई सर-ब-गरेबाँ जानाँ

हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है
हर कोई अपने ही साए से हिरासाँ जानाँ

जिस को देखो वही ज़ंजीर-ब-पा लगता है
शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िंदाँ जानाँ

अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए
और से और हुए दर्द के उनवाँ जानाँ

हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे
हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जानाँ

होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा रेज़ा
जैसे उड़ते हुए औराक़-ए-परेशाँ जानाँ

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ab ke tajdid-e-wafa ka nahin imkan jaanan
yaad kya tujh ko dilaen tera paiman jaanan

yunhi mausam ki ada dekh ke yaad aaya hai
kis qadar jald badal jate hain insan jaanan

zindagi teri ata thi so tere nam ki hai
hum ne jaise bhi basar ki tera ehsan jaanan

dil ye kahta hai ki shayad hai fasurda tu bhi
dil ki kya baat karen dil to hai nadan jaanan

awwal awwal ki mohabbat ke nashe yaad to kar
be-piye bhi tera chehra tha gulistan jaanan

aaKHir aaKHir to ye aalam hai ki ab hosh nahin
rag-e-mina sulag utthi ki rag-e-jaan jaanan

muddaton se yahi aalam na tawaqqo na umid
dil pukare hi chala jata hai jaanan jaanan

hum bhi kya sada the hum ne bhi samajh rakkha tha
gham-e-dauran se juda hai gham-e-jaanan jaanan

ab ke kuchh aisi saji mahfil-e-yaran jaanan
sar-ba-zanu hai koi sar-ba-gareban jaanan

har koi apni hi aawaz se kanp uThta hai
har koi apne hi sae se hirasan jaanan

jis ko dekho wahi zanjir-ba-pa lagta hai
shahr ka shahr hua dakhil-e-zindan jaanan

ab tera zikr bhi shayad hi ghazal mein aae
aur se aur hue dard ke unwan jaanan

hum ki ruthi hui rut ko bhi mana lete the
hum ne dekha hi na tha mausam-e-hijran jaanan

hosh aaya to sabhi KHwab the reza reza
jaise uDte hue auraq-e-pareshan jaanan

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Mujh se pehle tumhain jis shakhs ne chaha us ne

Mujh se pehle tumhain jis shakhs ne chaha us ne..

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने
शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो
एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद
अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो

मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा 
खो चुका है जो किसी और की रानाई में
शायद अब लौट के आए न तिरी महफ़िल में 
और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में 

मैं ने माना कि शब ओ रोज़ के हंगामों में 
वक़्त हर ग़म को भुला देता है रफ़्ता रफ़्ता 
चाहे उम्मीद की शमएँ हों कि यादों के चराग़ 
मुस्तक़िल बोद बुझा देता है रफ़्ता रफ़्ता 

फिर भी माज़ी का ख़याल आता है गाहे-गाहे 
मुद्दतें दर्द की लौ कम तो नहीं कर सकतीं 
ज़ख़्म भर जाएँ मगर दाग़ तो रह जाता है 
दूरियों से कभी यादें तो नहीं मर सकतीं 

ये भी मुमकिन है कि इक दिन वो पशीमाँ हो कर 
तेरे पास आए ज़माने से किनारा कर ले 
तू कि मासूम भी है ज़ूद-फ़रामोश भी है 
उस की पैमाँ-शिकनी को भी गवारा कर ले 

और मैं जिस ने तुझे अपना मसीहा समझा 
एक ज़ख़्म और भी पहले की तरह सह जाऊँ 
जिस पे पहले भी कई अहद-ए-वफ़ा टूटे हैं 
इसी दो-राहे पे चुप-चाप खड़ा रह जाऊँ 

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Mujh se pehle tumhain jis shakhs ne chaha us ne
Shayed ab bhi tera gham dil se laga rakha ho
Aik benaam se ummeed pea b bhi shayed
Apnay khwaboon ke jazeeroon ko saja rakha ho

Mein ne mana ke wo begana e paiman e wafa
Kho chukka hai jo kisi aur ki ra’nai mein
Shayed ab laut ke aye na teri mehfil mein
Aur koi gham na sataye tumhain tanhai mein

Mein ne mana ke shab o roz ke hungamoon mein
Waqt har zakhm ko bhar deta hai rafta rafta
Chahe ummeed ki sham’ain hoon ke yadoon ke charagh
Mustaqil bohd bhujha deta hai rafta rafta

Phir bhi mazi ka khayal ata hai gahe gahe
Mudatain dard ki lau kam to nahee kar sakteen
Zakhm bhar jaye magar daagh to reh jata hai
Dooryun se kabhi yadein to naheen mar sakti

Yeh bhi mumkin hai ke ik din wo pashemaan ho ke
Tere paas aye zamany se kinara kar le
Tuu ke masoom bhi hai zood faramosh bhi hai
Us ki pemaan shikni ko bhi gawara kar le

Aur mein ke jis ne tumhain apna maseeha samjha
Aik zakhm aur bhi pehle ki tarah seh jaoon
Jis pe pehle bhi kai ahd e wafa tootay hain
Phir usi maud pe chup chaap khada reh jaoon

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Hum milenge kaheen-Tehzeeb Hafi

Hum milenge kaheen-Tehzeeb Hafi..

'हम मिलेंगे कहीं'

हम मिलेंगे कहीं
अजनबी शहर की ख़्वाब होती हुई शाहराओं पे और शाहराओं पे फैली हुई धूप में
एक दिन हम कहीं साथ होगे वक़्त की आँधियों से अटी साहतों पर से मिट्टी हटाते हुये
एक ही जैसे आँसू बहाते हुये

हम मिलेंगे घने जंगलो की हरी घास पर और किसी शाख़-ए-नाज़ुक पर पड़ते हुये बोझ की दास्तानों मे खो जायेंगे
हम सनोबर के पेड़ों की नोकीले पत्तों से सदियों से सोये हुये देवताओं की आँखें चभो जायेंगे

हम मिलेंगे कहीं बर्फ़ के बाजुओं मे घिरे पर्वतों पर
बाँझ क़ब्रो मे लेटे हुये कोह पेमाओं की याद में नज़्म कहते हुये
जो पहाड़ों की औलाद थें, और उन्हें वक़्त आने पर माँ बाप ने अपनी आग़ोश में ले लिया
हम मिलेंगे कही शाह सुलेमान के उर्स मे हौज़ की सीढियों पर वज़ू करने वालो के शफ़्फ़ाफ़ चेहरों के आगे
संगेमरमर से आरस्ता फ़र्श पर पैर रखते हुये
आह भरते हुये और दरख़्तों को मन्नत के धागो से आज़ाद करते हुये हम मिलेंगे

हम मिलेंगे कहीं नारमेंडी के साहिल पे आते हुये अपने गुम गश्तरश्तो की ख़ाक-ए-सफ़र से अटी वर्दियों के निशाँ देख कर
मराकिस से पलटे हुये एक जर्नेल की आख़िरी बात पर मुस्कुराते हुये
इक जहाँ जंग की चोट खाते हुये हम मिलेंगे

हम मिलेंगे कहीं रूस की दास्ताओं की झूठी कहानी पे आँखो मे हैरत सजाये हुये, शाम लेबनान बेरूत की नरगिसी चश्मूरों की आमद के नोहू पे हँसते हुये, ख़ूनी कज़ियो से मफ़लूह जलबानियाँ के पहाड़ी इलाक़ों मे मेहमान बन कर मिलेंगे

हम मिलेंगे एक मुर्दा ज़माने की ख़ुश रंग तहज़ीब मे ज़स्ब होने के इमकान में
इक पुरानी इमारत के पहलू मे उजड़े हुये लाँन में
और अपने असीरों की राह देखते पाँच सदियों से वीरान ज़िंदान मे

हम मिलेंगे तमन्नाओं की छतरियों के तले, ख़्वाहिशों की हवाओं के बेबाक बोसो से छलनी बदन सौंपने के लिये रास्तों को
हम मिलेंगे ज़मीं से नमूदार होते हुये आठवें बर्रे आज़म में उड़ते हुये कालीन पर

हम मिलेंगे किसी बार में अपनी बकाया बची उम्र की पायमाली के जाम हाथ मे लेंगे और एक ही घूंट में हम ये सैयाल अंदर उतारेंगे
और होश आने तलक गीत गायेंगे बचपन के क़िस्से सुनाता हुआ गीत जो आज भी हमको अज़बर है बेड़ी बे बेड़ी तू ठिलदी तपईये पते पार क्या है पते पार क्या है-2?

हम मिलेंगे बाग़ में, गाँव में, धूप में, छाँव में, रेत मे, दश्त में, शहर में, मस्जिदों में, कलीसो में, मंदिर मे, मेहराब में, चर्च में, मूसलाधार बारिश में, बाज़ार में, ख़्वाब में, आग में, गहरे पानी में, गलियों में, जंगल में और आसमानों में
कोनो मकाँ से परे गैर आबद सैयाराए आरज़ू में सदियों से खाली पड़ी बेंच पर
जहाँ मौत भी हम से दस्तो गरेबाँ होगी, तो बस एक दो दिन की मेहमान होगी.
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Bhale dinon ki baat hai-Ahmed Faraz

Bhale dinon ki baat hai-Ahmed Faraz..

भले दिनों की बात है
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी
न ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे

कोई भी रुत हो उस की छब
फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छांव थी
वो सर्दियों की धूप थी

न मुद्दतों जुदा रहे
न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
न ये कि इज़्न-ए-आम हो

न ऐसी ख़ुश-लिबासियां
कि सादगी गिला करे
न इतनी बे-तकल्लुफ़ी
कि आइना हया करे

न इख़्तिलात में वो रम
कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी
कि ज़च करें नवाज़िशें
न आशिक़ी जुनून की
कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन
कि दोस्ती ख़राब हो

कभी तो बात भी ख़फ़ी
कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़रां
कभी उदासियों का बन

सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जां-फ़ज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए-जां-गुसिल की भी

सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूं
वो मेरी ज़िद से चिड़ गई

मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बद-तर-अज़-हवस कहे

शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियां
गले में मुस्तक़िल रहें

मोहब्बतों की वुसअतें
हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं

मैं कोई पेंटिंग नहीं
कि इक फ़्रेम में रहूं
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूं

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं

न उस को मुझ पे मान था
न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी
सो अपना अपना रास्ता
हंसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी

मैं अपनी राह चल दिया
भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी

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Bhale dinon ki baat hai
Bhali si ek shakl thi
Na ye ki husn-e-tam ho
Na dekhne men aam si

Na ye ki vo chale to 
Kahkashan si rahguzar lage
Magar vo saath ho to phir 
Bhala bhala safar lage

Koi bhi rut ho us ki chhab
Faza ka rang-rup thi
Vo garmiyon ki chhanv thi
Vo sardiyon ki dhuup thi

Na muddaton juda rahe
Na saath subh-o-sham ho
Na rishta-e-vafa pe zid
Na ye ki izn-e-am ho

Na aisi khush-libasiyan
Ki sadgi gila kare
Na itni be-takallufi
Ki aaina haya kare

Na ikhtilat men vo ram
Ki bad-maza hon khvahishen
Na is qadar supurdagi
Ki zach karen navazishen

Na ashiqi junun ki
Ki zindagi azaab ho
Na is qadar kathor-pan
Ki dosti kharab ho

Kabhi to baat bhi khafi
Kabhi sukut bhi sukhan
Kabhi to kisht-e-zaafaran
Kabhi udasiyon ka ban

Suna hai ek umr hai
Muamalat-e-dil ki bhi
Visal-e-jan-faza,n to kya
Firaq-e-jangusil ki bhi

So ek roz kya hua
Vafa pe bahs chhid gai
Main ishq ko amar kahun
Vo meri zid se chid gai

Main ishq ka asiir tha
Vo ishq ko qafas kahe
Ki umr bhar ke saath ko
Vo bad-tar-az-havas kahe

Shajar hajar nahin ki ham
Hamesha pa-ba-gil rahen
Na Dhor hain ki rassiyan
Gale men mustaqil rahen

Mohabbaton ki vasuatein
Hamare dast-o-pa men hain
Bas ek dar se nisbaten
Sagan-e-ba-vafa men hain

Main koi panting nahin
Ki ik frame men rahun
Wahi jo man ka miit ho
Usi ke prem men rahun

Tumhari soch jo bhi ho
Main us mizaj ki nahin
Mujhe vafa se bair hai
Ye baat aaj ki nahin

Na us ko mujh pe maan tha
Na mujh ko us pe zoam hi
Jo ahd hi koi na ho
To kya gham-e-shikastagi

So apna apna rasta
Hansi-khushi badal diya
Vo apni raah chal padi
Main apni raah chal diya

Bhali si ek shakl thi
Bhali si us ki dosti
Ab us ki yaad raat din
Nahin, magar kabhi kabhi
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Phir koi aayaa dil-e-zaar Nahin koi nahin

Phir koi aayaa dil-e-zaar Nahin koi nahin..

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं
राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिए क़दमों के सुराग़
गुल करो शमएँ बढ़ा दो मय ओ मीना ओ अयाग़
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं कोई नहीं आएगा

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Phir koi aayaa, dil-e-zaar! Nahin, koi nahin
Rah’ro hoga, kahin aur chalaa jaayegaa
Dhal chuki raat, bikharne lagaa taaron ka ghubaar
Ladkhadaane lage aiwaanon mein khwabda chiraag
So gayee raastaa tak tak ke har ik rahguzaar
Ajnabi khaak ne dhundlaa diye qadmon ke suraagh
Gul karo shammein! Badhaa do mai-o-meena-o-ayaagh
Apne bekhwaab kiwaadon ko muqaffal kar lo
Ab yahaan koi nahin, koi nahin aayega

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ranjish hi sahi dil hi dukhane ke liye aa

ranjish hi sahi dil hi dukhane ke liye aa..

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझ को रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शमाएं भी बुझाने के लिए आ

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ranjish hi sahi dil hi dukhane ke liye aa
aa phir se mujhe chhod ke jaane ke liye aa

Pahale se maraasim na sahii phir bhi kabhi tou
rasm-o-rahe duniya hi nibhane ke liye aa

Kis kis ko batayenge judaai ka sabab ham
tu mujhse khafaa hai tou zamaane ke liye aa

kuch tou mere pindaar-e-mohabbat ka bharam rakh
tu bhi to kabhi mujh ko manaane ke liye aa

ek umr se hoon lazzat-e-giriyaa se bhi maharuum
aye raahat-e-jaan mujh ko rulaane ke liye aa

ab tak dil-e-khushfeham ko tujh se hain ummiden
ye aakharii shammen bhi bujhaane ke liye aa
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gham-e-ashishiqi tera shukhriya

gham-e-ashishiqi tera shukhriya..

कभी रुक गए कभी चल दिए
कभी चलते चलते भटक गए
यूँही उम्र सारी गुज़र गई
यूँही ज़िन्दगी के सितम सहे

कभी नींद में कभी होश में
तू जहाँ मिला तुझे देख कर
न नज़र मिली न ज़ुबान हिली
यूँही सर झुका के गुज़र गए

कभी ज़ुल्फ़ पर कभी चश्म पर
कभी तेरे हसीं वजूद पर
जो पसंद थे मेरी किताब में
वो शेर सारे बिखर गए

मुझे याद है कभी एक थे
मगर आज हम हैं जुदा जुदा
वो जुदा हुए तो संवर गए
हम जुदा हुवे तो बिखर गए

कभी अर्श पर कभी फर्श पर
कभी उन के दर कभी दर -बदर
ग़म -ए -आशीकी तेरा शुक्रिया
हम कहाँ कहाँ से गुज़र गए

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kabhi ruk gaye kabhi chal diye
kabhi chalte chalte bhatak gae
yunhi umar sari guzar gai
yunhi zindagi k sitam sahey

kabhi neend mein kabhi hosh mein
tu jahan mila tujhe dekh kar
na nazar mili na zuban hili
tu yunhi sar jhuka k guzar gae.

kabhi zulf par kabhi chashm par
kabhi tere haseen wajood par
jo pasand thy meri kitab mein
wo shair sary bikhair gae

mujhe yaad hai kabhi ek the
magar aaj hum hain juda juda
wo juda hue to sanwar gae
hum juda howe to bikhar gae

kabhi arsh par kabhi farsh par
kabhi un k dar kabhi dar-badar
gham-e-ashishiqi tera shukhriya
hum kahan kahan se guzar gaye
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chand roz aur miri jaan

chand roz aur miri jaan..


चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम 
और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम 

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं 
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में 
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं

लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं 
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं

अरसा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में 
हम को रहना है पे यूँही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे-नाम गिराँ-बार सितम 
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है

ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द 
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द 

दिल की बे-सूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़.

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chand roz aur miri jaan faqat chand hi roz
zulm ki chhanv men dam lene pe majbur hain ham
aur kuchh der sitam sah len taDap len ro len 
apne ajdad ki miras hai mazur hain ham 


jism par qaid hai jazbat pe zanjiren hain 
fikr mahbus hai guftar pe taziren hain 
apni himmat hai ki ham phir bhi jiye jaate hain 
zindagi kya kisi muflis ki qaba hai jis men 
har ghaDi dard ke paivand lage jaate hain

lekin ab zulm ki mi.ad ke din thoDe hain 
ik zara sabr ki fariyad ke din thoDe hain

arsa-e-dahr ki jhulsi hui virani men 
ham ko rahna hai pe yunhi to nahin rahna hai 
ajnabi hathon ka be-nam giran-bar sitam 
aaj sahna hai hamesha to nahin sahna hai 

ye tire husn se lipTi hui alam ki gard 
apni do roza javani ki shikaston ka shumar 
chandni raton ka bekar dahakta hua dard 

dil ki be-sud taDap jism ki mayus pukar 
chand roz aur miri jaan faqat chand hi roz
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umr guzregi imtihan mein kya

umr guzregi imtihan mein kya..

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या 

मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या 

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या 

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या 

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से
आ गया था मिरे गुमान में क्या 

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या 

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या 

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या 

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मिरे गुमान में क्या 

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत
ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या 

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या 

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या 

है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद
ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या 

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या 

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umr guzregi imtihan men kya
daagh hi denge mujh ko daan men kya 

meri har baat be-asar hi rahi
nuqs hai kuchh mire bayan men kya 

mujh ko to koi Tokta bhi nahin
yahi hota hai khandan men kya 

apni mahrumiyan chhupate hain
ham gharibon ki an-ban men kya 

khud ko jaana juda zamane se
aa gaya tha mire guman men kya 

shaam hi se dukan-e-did hai band
nahin nuqsan tak dukan men kya 

ai mire sub.h-o-sham-e-dil ki shafaq
tu nahati hai ab bhi baan men kya 

bolte kyuun nahin mire haq men
aable paD ga.e zaban men kya 

khamushi kah rahi hai kaan men kya
aa raha hai mire guman men kya 

dil ki aate hain jis ko dhyan bahut
khud bhi aata hai apne dhyan men kya 

vo mile to ye puchhna hai mujhe
ab bhi huun main tiri amaan men kya 

yuun jo takta hai asman ko tu
koi rahta hai asman men kya 

hai nasim-e-bahar gard-alud
khaak uDti hai us makan men kya 

ye mujhe chain kyuun nahin paDta
ek hi shakhs tha jahan men kya
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Khwabon ke byopari

Khwabon ke byopari..

हम ख़्वाबों के ब्योपारी थे
पर इस में हुआ नुक़सान बड़ा 
कुछ बख़्त में ढेरों कालक थी 
कुछ अब के ग़ज़ब का काल पड़ा 
हम राख लिए हैं झोली में 
और सर पे है साहूकार खड़ा 
याँ बूँद नहीं है डेवे में 
वो बाज-ब्याज की बात करे 
हम बाँझ ज़मीन को तकते हैं 
वो ढोर अनाज की बात करे 
हम कुछ दिन की मोहलत माँगें 
वो आज ही आज की बात करे 

जब धरती सहरा सहरा थी 
हम दरिया दरिया रोए थे 
जब हाथ की रेखाएँ चुप थीं 
और सुर संगीत में सोए थे
तब हम ने जीवन-खेती में 
कुछ ख़्वाब अनोखे बोए थे 

कुछ ख़्वाब सजल मुस्कानों के 
कुछ बोल कबत दीवानों के 
कुछ लफ़्ज़ जिन्हें मअनी न मिले 
कुछ गीत शिकस्ता-जानों के 
कुछ नीर वफ़ा की शम्ओं के 
कुछ पर पागल परवानों के 

पर अपनी घायल आँखों से 
ख़ुश हो के लहू छिड़काया था 
माटी में मास की खाद भरी 
और नस नस को ज़ख़माया था 
और भूल गए पिछली रुत में 
क्या खोया था क्या पाया था 

हर बार गगन ने वहम दिया 
अब के बरखा जब आएगी 
हर बीज से कोंपल फूटेगी 
और हर कोंपल फल लाएगी
सर पर छाया छतरी होगी
और धूप घटा बन जाएगी

जब फ़स्ल कटी तो क्या देखा
कुछ दर्द के टूटे गजरे थे
कुछ ज़ख़्मी ख़्वाब थे काँटों पर
कुछ ख़ाकिस्तर से कजरे थे
और दूर उफ़ुक़ के सागर में
कुछ डोलते डूबते बजरे थे

अब पाँव खड़ाऊँ धूल-भरी
और जिस्म पे जोग का चोला है
सब संगी साथी भेद-भरे
कोई मासा है कोई तोला है
इस ताक में ये इस घात में वो
हर ओर ठगों का टोला है

अब घाट न घर दहलीज़ न दर
अब पास रहा है क्या बाबा
बस तन की गठरी बाक़ी है
जा ये भी तू ले जा बाबा
हम बस्ती छोड़े जाते हैं
तू अपना क़र्ज़ चुका बाबा

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ham khvabon ke byopari the
par is men hua nuqsan baDa
kuchh bakht men Dheron kalak thi
kuchh ab ke ghazab ka kaal paDa
ham raakh liye hain jholi men
aur sar pe hai sahukar khaDa
yaan buund nahin hai Deve men
vo baj-byaj ki baat kare
ham banjh zamin ko takte hain
vo Dhor anaaj ki baat kare
ham kuchh din ki mohlat mangen
vo aaj hi aaj ki baat kare

jab dharti sahra sahra thi
ham dariya dariya ro.e the
jab haath ki rekha.en chup thiin
aur sur sangit men so.e the
tab ham ne jivan-kheti men

kuchh khvab anokhe bo.e the
kuchh khvab sajal muskanon ke
kuchh bol kabat divanon ke
kuchh lafz jinhen ma.ani na mile
kuchh giit shikasta-janon ke
kuchh niir vafa ki sham.on ke
kuchh par pagal parvanon ke

par apni ghayal ankhon se
khush ho ke lahu chhiDkaya tha
maaTi men maas ki khaad bhari
aur nas nas ko zakhamaya tha 
aur bhuul ga.e pichhli rut men 
kya khoya tha kya paaya tha 

har baar gagan ne vahm diya 
ab ke barkha jab aa.egi 
har biij se konpal phuTegi 
aur har konpal phal la.egi 
sar par chhaya chhatri hogi 
aur dhuup ghaTa ban ja.egi 

jab fasl kaTi to kya dekha 
kuchh dard ke TuuTe gajre the 
kuchh zakhmi khvab the kanTon par 
kuchh khakistar se kajre the 
aur duur ufuq ke sagar men 
kuchh Dolte Dubte bajre the 

ab paanv khaDa.un dhul-bhari 
aur jism pe jog ka chola hai 
sab sangi sathi bhed-bhare 
koi maasa hai koi tola hai 
is taak men ye is ghaat men vo 
har or Thagon ka Tola hai

ab ghaaT na ghar dahliz na dar 
ab paas raha hai kya baaba 
bas tan ki gaThri baaqi hai 
ja ye bhi tu le ja baaba 
ham basti chhoDe jaate hain 
tu apna qarz chuka baaba
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Parchhaiyan

Parchhaiyan..

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख़ाब-ए-मर्मरीं की तरह

हसीन फूल हसीं पतियाँ हसीं शाख़ें
लचक रही हैं किसी जिस्म-ए-नाज़नीं की तरह 

फ़ज़ा में घुल से गए हैं उफ़ुक़ के नर्म ख़ुतूत
ज़मीं हसीन है ख़्वाबों की सरज़मीं की तरह 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
कभी गुमान की सूरत कभी यक़ीं की तरह 

वो पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह 

उन्ही के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
ख़मोश होंटों से कुछ कहने सुनने आए हैं 

न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते जागते लम्हे चुरा के लाए हैं 

यही फ़ज़ा थी यही रुत यही ज़माना था
यहीं से हम ने मोहब्बत की इब्तिदा की थी 

धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुज़ूर-ए-ग़ैब में नन्ही सी इल्तिजा की थी

कि आरज़ू के कँवल खिल के फूल हो जाएँ
दिल-ओ-नज़र की दुआएँ क़ुबूल हो जाएँ 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बच कर 

नज़र झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेंपती डरती 

ख़ुद अपने साए की जुम्बिश से ख़ौफ़ खाए हुए
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

रवाँ है छोटी सी कश्ती हवाओं के रुख़ पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है 

तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मिरी खुली हुई बाहोँ में झूल जाता है 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जोड़े में 

तुम्हारी आँख मसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ 

ज़बान ख़ुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

मिरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होंटों पे मेरे लबों के साए हैं 

मुझे यक़ीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान कि हम मिल के भी पराए हैं 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

मिरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को
अदा-ए-इज्ज़-ओ-करम से उठा रही हो तुम 

सुहाग-रात जो ढोलक पे गाए जाते हैं
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

वो लम्हे कितने दिलकश थे वो घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं
वो सेहरे कितने नाज़ुक थे वो लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं 

बस्ती की हर इक शादाब गली ख़्वाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौज-ए-नफ़स हर मौज-ए-सबा नग़्मों का ज़ख़ीरा थी गोया 

नागाह लहकते खेतों से टापों की सदाएँ आने लगीं
बारूद की बोझल बू ले कर पच्छिम से हवाएँ आने लगीं 

ता'मीर के रौशन चेहरे पर तख़रीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी हर शहर में जंगल फैल गया 

मग़रिब के मोहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ ख़ाकी-वर्दी-पोश आए
इठलाते हुए मग़रूर आए लहराते हुए मदहोश आए 

ख़ामोश ज़मीं के सीने में ख़ेमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन सी मुलाएम राहों पर बूटों की ख़राशें पड़ने लगीं
फ़ौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदाएँ डूब गईं 


जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बाएँ डूब गईं
इंसान की क़िस्मत गिरने लगी अजनास के भाव चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक़ घुटने लगी भरती के दफ़ातिर बढ़ने लगे 


बस्ती के सजीले शोख़ जवाँ बन बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

उन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई बरनाई भी
माओं के जवाँ बेटे भी गए बहनों के चहेते भाई भी 

बस्ती पे उदासी छाने लगी मेलों की बहारें ख़त्म हुईं
आमों की लचकती शाख़ों से झूलों की क़तारें ख़त्म हुईं 

धूल उड़ने लगी बाज़ारों में भूक उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठ कर रू-पोश हुई तह-ख़ानों में 

बद-हाल घरों की बद-हाली बढ़ते बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़ कर काल बनी सारी बस्ती कंगाल बनी 

चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कुँवारी अबलाएँ माँ बाप की चौखट छोड़ गईं 

अफ़्लास-ज़दा दहक़ानों के हल बैल बिके खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों जीने के सब सामान बिके 

कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़ल्वत में भी जो ममनूअ' थी वो जल्वत में जसारत होने लगी 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

तुम आ रही हो सर-ए-शाम बाल बिखराए
हज़ार-गूना मलामत का बार उठाए हुए 

हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उर्यानियाँ छुपाए हुए 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 
मैं शहर जा के हर इक दर पे झाँक आया हूँ 

किसी जगह मिरी मेहनत का मोल मिल न सका 
सितमगरों के सियासी क़िमार-ख़ाने में 

अलम-नसीब फ़रासत का मोल मिल न सका 
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बरपा है 
महाज़-ए-जंग से हरकारा तार लाया है 

कि जिस का ज़िक्र तुम्हें ज़िंदगी से प्यारा था 
वो भाई नर्ग़ा-ए-दुश्मन में काम आया है 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

हर एक गाम पे बद-नामियों का जमघट है 
हर एक मोड़ पे रुस्वाइयों के मेले हैं 
न दोस्ती न तकल्लुफ़ न दिलबरी न ख़ुलूस 
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

वो रहगुज़र जो मिरे दिल की तरह सूनी है 
न जाने तुम को कहाँ ले के जाने वाली है 
तुम्हें ख़रीद रहे हैं ज़मीर के क़ातिल 
उफ़ुक़ पे ख़ून-ए-तमन्ना-ए-दिल की लाली है 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे 
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे 


उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनिया में 
सहमी हुई दो-शीज़ाओं की मुस्कान भी बेची जाती है 
उस शाम मुझे मालूम हुआ इस कार-गह-ए-ज़र्दारी में 
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है 
उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाए 
ममता के सुनहरे ख़्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है 
उस शाम मुझे मालूम हुआ जब भाई जंग में काम आएँ 
सरमाए के क़हबा-ख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है 

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे 
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

तुम आज हज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तन्हाई में 
या बज़्म-ए-तरब-आराई में 
मेरे सपने बुनती होंगी बैठी आग़ोश पराई में 
और मैं सीने में ग़म ले कर दिन-रात मशक़्क़त करता हूँ 
जीने की ख़ातिर मरता हूँ 
अपने फ़न को रुस्वा कर के अग़्यार का दामन भरता हूँ 
मजबूर हूँ मैं मजबूर हो तुम मजबूर ये दुनिया सारी है 
तन का दुख मन पर भारी है 
इस दौर में जीने की क़ीमत या दार-ओ-रसन या ख़्वारी है 
मैं दार-ओ-रसन तक जा न सका तुम जेहद की हद तक आ न सकीं 
चाहा तो मगर अपना न सकीं 
हम तो दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िल-ए-तस्कीं पा न सकें 
जीने को जिए जाते हैं मगर साँसों में चिताएँ जलती हैं 
ख़ामोश वफ़ाएँ जलती हैं 
संगीन हक़ाइक़-ज़ारों में ख़्वाबों की रिदाएँ जलती हैं 
और आज जब इन पेड़ों के तले फिर दो साए लहराए हैं 
फिर दो दिल मिलने आए हैं 
फिर मौत की आँधी उट्ठी है फिर जंग के बादल छाए हैं 
मैं सोच रहा हूँ इन का भी अपनी ही तरह अंजाम न हो 
इन का भी जुनूँ नाकाम न हो 
इन के भी मुक़द्दर में लिखी इक ख़ून में लिथड़ी शाम न हो 
सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे 
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे 
हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका 
मगर उन्हें तो मुरादों की रात मिल जाए 
हमें तो कश्मकश-ए-मर्ग-ए-बे-अमाँ ही मिली 
उन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाए 

बहुत दिनों से है ये मश्ग़ला सियासत का 
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जाएँ 
बहुत दिनों से ये है ख़ब्त हुक्मरानों का 
कि दूर दूर के मुल्कों में क़हत बो जाएँ 
बहुत दिनों से जवानी के ख़्वाब वीराँ हैं 
बहुत दिनों से सितम-दीदा शाह-राहों में 
निगार-ए-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढती है 
चलो कि आज सभी पाएमाल रूहों से 
कहें कि अपने हर इक ज़ख़्म को ज़बाँ कर लें 
हमारा राज़ हमारा नहीं सभी का है 
चलो कि सारे ज़माने को राज़-दाँ कर लें 
चलो कि चल के सियासी मुक़ामिरों से कहें 
कि हम को जंग-ओ-जदल के चलन से नफ़रत है 
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आए 
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है 
कहो कि अब कोई क़ातिल अगर इधर आया 
तो हर क़दम पे ज़मीं तंग होती जाएगी 
हर एक मौज-ए-हवा रुख़ बदल के झपटेगी 
हर एक शाख़ रग-ए-संग होती जाएगी 
उठो कि आज हर इक जंग-जू से ये कह दें 
कि हम को काम की ख़ातिर कलों की हाजत है 
हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक़ नहीं 
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है 
कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख़ न करे 
अब इस जगह कोई कुँवारी न बेची जाएगी 
ये खेत जाग पड़े उठ खड़ी हुईं फ़स्लें 
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जाएगी 
ये सर-ज़मीन है गौतम की और नानक की 
इस अर्ज़-ए-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी 
हमारा ख़ून अमानत है नस्ल-ए-नौ के लिए 
हमारे ख़ून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी 
कहो कि आज भी हम सब अगर ख़मोश रहे 
तो इस दमकते हुए ख़ाक-दाँ की ख़ैर नहीं 
जुनूँ की ढाली हुई एटमी बलाओं से 
ज़मीं की ख़ैर नहीं आसमाँ की ख़ैर नहीं 
गुज़िश्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार 
अजब नहीं कि ये तन्हाइयाँ भी जल जाएँ 
गुज़िश्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार 
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जाएँ 

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं 
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naya ek rishta paida kyun karen hum

naya ek rishta paida kyun karen hum..

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम 
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम 

ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी 
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम 

ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं 
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम 

वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत 
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम 

सुना दें इस्मत-ए-मरियम का क़िस्सा 
पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम 

ज़ुलेख़ा-ए-अज़ीज़ाँ बात ये है 
भला घाटे का सौदा क्यों करें हम 

हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम 
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम 

किया था अह्द जब लम्हों में हम ने 
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम 

उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें 
फ़क़त कमरों में टहला क्यों करें हम 

जो इक नस्ल-ए-फ़रोमाया को पहुँचे 
वो सरमाया इकट्ठा क्यों करें हम 

नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी 
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम 

बरहना हैं सर-ए-बाज़ार तो क्या 
भला अंधों से पर्दा क्यों करें हम 

हैं बाशिंदे उसी बस्ती के हम भी 
सो ख़ुद पर भी भरोसा क्यों करें हम 

चबा लें क्यों न ख़ुद ही अपना ढाँचा 
तुम्हें रातिब मुहय्या क्यों करें हम 

पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें 
ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम 

ये बस्ती है मुसलमानों की बस्ती 
यहाँ कार-ए-मसीहा क्यूँ करें हम 

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naya ik rishta paida kyuun karen ham 
bichhadna hai to jhagda kyuun karen ham 

khamoshi se ada ho rasm-e-duri 
koi hangama barpa kyuun karen ham 

ye kaafi hai ki ham dushman nahin hain 
vafa-dari ka da.ava kyuun karen ham 

vafa ikhlas qurbani mohabbat 
ab in lafzon ka pichha kyuun karen ham 

suna den ismat-e-mariyam ka qissa 
par ab is baab ko va kyon karen ham 

zulekha-e-azizan baat ye hai 
bhala ghaTe ka sauda kyon karen ham 

hamari hi tamanna kyuun karo tum 
tumhari hi tamanna kyuun karen ham 

kiya tha ahd jab lamhon men ham ne 
to saari umr iifa kyuun karen ham 

uTha kar kyon na phenken saari chizen 
faqat kamron men Tahla kyon karen ham 

jo ik nasl-e-faromaya ko pahunche 
vo sarmaya ikaTTha kyon karen ham 

nahin duniya ko jab parva hamari 
to phir duniya ki parva kyuun karen ham 

barahna hain sar-e-bazar to kya 
bhala andhon se parda kyon karen ham 

hain bashinde usi basti ke ham bhi 
so khud par bhi bharosa kyon karen ham 

chaba len kyon na khud hi apna dhancha 
tumhen ratib muhayya kyon karen ham 

padi rahne do insanon ki lashen 
zamin ka bojh halka kyon karen ham 

ye basti hai musalmanon ki basti 
yahan kar-e-masiha kyuun karen ham..
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Itna Maloom hai

Itna Maloom hai..

अपने बिस्तर पे बहुत देर से मैं नीम-दराज़ 
सोचती थी कि वो इस वक़्त कहाँ पर होगा 
मैं यहाँ हूँ मगर उस कूचा-ए-रंग-ओ-बू में 
रोज़ की तरह से वो आज भी आया होगा 
और जब उस ने वहाँ मुझ को न पाया होगा!? 


आप को इल्म है वो आज नहीं आई हैं? 
मेरी हर दोस्त से उस ने यही पूछा होगा 
क्यूँ नहीं आई वो क्या बात हुई है आख़िर 
ख़ुद से इस बात पे सौ बार वो उलझा होगा 
कल वो आएगी तो मैं उस से नहीं बोलूँगा 
आप ही आप कई बार वो रूठा होगा 
वो नहीं है तो बुलंदी का सफ़र कितना कठिन 
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उस ने ये सोचा होगा 
राहदारी में हरे लॉन में फूलों के क़रीब 
उस ने हर सम्त मुझे आन के ढूँडा होगा 


नाम भूले से जो मेरा कहीं आया होगा 
ग़ैर-महसूस तरीक़े से वो चौंका होगा 
एक जुमले को कई बार सुनाया होगा 
बात करते हुए सौ बार वो भूला होगा 
ये जो लड़की नई आई है कहीं वो तो नहीं 
उस ने हर चेहरा यही सोच के देखा होगा 
जान-ए-महफ़िल है मगर आज फ़क़त मेरे बग़ैर 
हाए किस दर्जा वही बज़्म में तन्हा होगा 
कभी सन्नाटों से वहशत जो हुई होगी उसे 
उस ने बे-साख़्ता फिर मुझ को पुकारा होगा 
चलते चलते कोई मानूस सी आहट पा कर 
दोस्तों को भी किस उज़्र से रोका होगा 
याद कर के मुझे नम हो गई होंगी पलकें 
''आँख में पड़ गया कुछ'' कह के ये टाला होगा 
और घबरा के किताबों में जो ली होगी पनाह 
हर सतर में मिरा चेहरा उभर आया होगा 
जब मिली होगी उसे मेरी अलालत की ख़बर 
उस ने आहिस्ता से दीवार को थामा होगा 
सोच कर ये कि बहल जाए परेशानी-ए-दिल 
यूँही बे-वज्ह किसी शख़्स को रोका होगा! 


इत्तिफ़ाक़न मुझे उस शाम मिरी दोस्त मिली 
मैं ने पूछा कि सुनो आए थे वो? कैसे थे? 
मुझ को पूछा था मुझे ढूँडा था चारों जानिब? 
उस ने इक लम्हे को देखा मुझे और फिर हँस दी 
इस हँसी में तो वो तल्ख़ी थी कि इस से आगे 
क्या कहा उस ने मुझे याद नहीं है लेकिन 
इतना मालूम है ख़्वाबों का भरम टूट गया! 

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apne bistar pe bohat der se mein neem daraaz
sochti thi ke woh is waqt kahan par hoga
mein yahan hoo magar is koocha-e-rang-o-boo mein
roz ki tarah se woh aaj bhi aaya hoga
aur jab us ne wahan mujh ko na paaya hoga!?

aap ko ilm hai woh aaj nahi aayi hain?
meri har dost se us ne yahi poocha hoga
kyun nahi aayi woh kya baat hui hai aakhir
khud se is baat pe sau baar woh uljha hoga
kal woh aaye gi toh mein us se nahi bolon ga
aap hi aap kai baar woh rootha hoga
woh nahi hai to bulandi ka safar kitna kathin
seedhiyan charhtay hue us ne yeh socha hoga
raahdaari mein hare lawn mein phoolon ke qareeb
us ne har simt mujhe aan ke dhoonda hoga

naam bhoolay se jo mera kahin aaya hoga
ghair mahsoos tareeqay se woh chonka hoga
aik jumlay ko kayi baar sunaya hoga
baat karte hue sau baar woh bhoola hoga
yeh jo larki nai aayi hai kahin woh to nahi
us ne har chehra yahi soch ke dekha hoga
jaan-e-mahfil hai magar aaj faqat mere baghair
haae kis darja wohi bazm mein tanha hoga
kabhi sannaton se wahshat jo hui hogi usay
Us ne be sakhta phir mujh ko pukara hoga
chaltay chaltay koi manoos si aahat pa kar
doston ko bhi kis uzr se roka hoga
yaad kar ke mujhe num ho gayi hon gi palken
”aankh mein par gaya kuch” keh ke yeh taala hoga
aur ghabra ke kitabon mein jo li hogi panah
har satar mein mera chehra ubhar aaya hoga
jab mili hogi usay meri alaalat ki khabar
us ne aahista se deewar ko thaama hoga
soch kar yeh ke behal jaye pareshan-e-dil
yun hi be wajah kisi shakhs ko roka hoga!

itafaqan mujhe us shaam meri dost mili
mein ne poocha ke suno aaye thay woh? kaisay thay ?
mujh ko poocha tha mujhe dhoonda tha chaaron janib ?
us ne ik lamhay ko dekha mujhe aur phir hans di
is hansi mein to woh talkhi thi ke is se agay
kya kaha is ne mujhe yaad nahi hai lekin
itna maloom hai khowaboon ka bharam toot gaya...


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اپنے بستر پہ بہت دیر سے میں نیم دراز
سوچتی تھی کہ وہ اس وقت کہاں پر ہوگا
میں یہاں ہوں مگر اس کوچۂ رنگ و بو میں
روز کی طرح سے وہ آج بھی آیا ہوگا
اور جب اس نے وہاں مجھ کو نہ پایا ہوگا!؟

آپ کو علم ہے وہ آج نہیں آئی ہیں؟
میری ہر دوست سے اس نے یہی پوچھا ہوگا
کیوں نہیں آئی وہ کیا بات ہوئی ہے آخر
خود سے اس بات پہ سو بار وہ الجھا ہوگا
کل وہ آئے گی تو میں اس سے نہیں بولوں گا
آپ ہی آپ کئی بار وہ روٹھا ہوگا
وہ نہیں ہے تو بلندی کا سفر کتنا کٹھن
سیڑھیاں چڑھتے ہوئے اس نے یہ سوچا ہوگا
راہداری میں ہرے لان میں پھولوں کے قریب
اس نے ہر سمت مجھے آن کے ڈھونڈا ہوگا

نام بھولے سے جو میرا کہیں آیا ہوگا
غیر محسوس طریقے سے وہ چونکا ہوگا
ایک جملے کو کئی بار سنایا ہوگا
بات کرتے ہوئے سو بار وہ بھولا ہوگا
یہ جو لڑکی نئی آئی ہے کہیں وہ تو نہیں
اس نے ہر چہرہ یہی سوچ کے دیکھا ہوگا
جان محفل ہے مگر آج فقط میرے بغیر
ہائے کس درجہ وہی بزم میں تنہا ہوگا
کبھی سناٹوں سے وحشت جو ہوئی ہوگی اسے
اس نے بے ساختہ پھر مجھ کو پکارا ہوگا
چلتے چلتے کوئی مانوس سی آہٹ پا کر
دوستوں کو بھی کس عذر سے روکا ہوگا
یاد کر کے مجھے نم ہو گئی ہوں گی پلکیں
”آنکھ میں پڑ گیا کچھ” کہہ کے یہ ٹالا ہوگا
اور گھبرا کے کتابوں میں جو لی ہوگی پناہ
ہر سطر میں مرا چہرہ ابھر آیا ہوگا
جب ملی ہوگی اسے میری علالت کی خبر
اس نے آہستہ سے دیوار کو تھاما ہوگا
سوچ کر یہ کہ بہل جائے پریشانی دل
!یوں ہی بے وجہ کسی شخص کو روکا ہوگا

اتفاقاً مجھے اس شام مری دوست ملی
میں نے پوچھا کہ سنو آئے تھے وہ؟ کیسے تھے؟
مجھ کو پوچھا تھا مجھے ڈھونڈا تھا چاروں جانب؟
اس نے اک لمحے کو دیکھا مجھے اور پھر ہنس دی
اس ہنسی میں تو وہ تلخی تھی کہ اس سے آگے
کیا کہا اس نے مجھے یاد نہیں ہے لیکن
!اتنا معلوم ہے خوابوں کا بھرم ٹوٹ گیا

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